अदृश्य हो गयी/डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र

 अदृश्य हो गयी


अदृश्य हो गयी
मेरी मां अब
चली गई
गोलोक
साथ में अपना कुछ
सामान लेकर
कोई नहीं जाता
अपने साथ
लेकर यहां से कुछ
ममता, झिड़कियां,
क्रोध एक साथ
लेकर चली गई
जाते- जाते
पत्थर सी हो गई थी।
क्रोध, झिड़कियां
और ममता पिये अब
बीत गए सालों
अब मुझे पीना पड़ता है
सिर्फ़ नफ़रत ईर्ष्या, द्वेष
रोज- रोज पीने से
मैं मर रहा हूं
एक साफ़ अंतर
मुझमें दिखने लगा
कि धीरे- धीरे
मैंने खो दिया
अपना समूचा जीवन।

adrshy- ho -gae
डॉ. सम्पूर्णानन्द मिश्र

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