बहती जैसे गंग-धार हो/हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश’
बहती जैसे गंग-धार हो/हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश’
बहती जैसे गंग-धार हो।
मॉ तू पावन निर्मल कल-कल,
बहती जैसे गंग-धार हो।
सर्वश्रेष्ठ कृति ,सृष्टि धरोहर,
उर-उपवन की मधु बहार हो।
उच्छ्वासों में तू ही तू मॉ ,
वन्दन शत-शत बार करूॅ–
जनम-जनम यह जीवन अर्पित,
इस जीवन की तुम निखार हो।
मॉ तू पावन निर्मल कल-कल,
बहती जैसे गंग-धार हो।1।
पग-पग सॅभल-सॅभल कर मुझको,
चलना तुमने सिखलाया है ।
अपने ,सगे ,पराये ,रिश्ते ,
नातों को भी समझाया है ।
धूप-छॉव ,पावस में पल-पल,
शीत में साथ निभाया मॉ–
कर्म ,धर्म ,सहकार -संस्कृति,
सब तुमसे ही अपनाया है ।
समरसता का ज्ञान बिखेरो,
नित स्नेह सहज आधार हो ।
मॉ तू पावन निर्मल कल-कल,
बहती जैसे गंग-धार हो ।2।
अनगिन उपकार किया मॉ तुमने,
ॠण-मुक्त नहीं हो पाऊॅगा ।
बचपन मेरा लोरी तेरी ,
मॉ तुझको नहीं भुला पाऊॅगा ।
जीवन-पथ पर सुधियों में तू,
चल कर साथ निभाना मॉ –
सुत ‘हरीश, का शीश चरण में,
तव पग-नख का ऋंगार हो ।
मॉ तू पावन निर्मल कल-कल,
बहती जैसे गंग-धार हो।3।
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