चरणों में यह जीवन है | जय शिव शंकर जय अविनाशी | कोई नहीं है अपना | ऋतु सावन की आई है | हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश’
गुरु-पूर्णिमा के पावन अवसर पर पूज्य गुरुदेव को समर्पित एक गीत–
शीर्षक:-चरणों में यह जीवन है।
रोम-रोम में नाम तुम्हारा,
सुधियों में छवि तेरी है,
अनुप्राणित यह जीवन तुमसे,
तुमसे दुनिया मेरी है। टेक।
चर-अचर जगत में ज्ञान तेरा,
पथ आलोकित करता है,
तुझसे नयी प्रेरणा लेकर,
कर्तव्यबोध नित करता है।
हाथ पकड़कर साथ चलाना,
आगे राह घनेरी है।
रोम-रोम में नाम तुम्हारा,
सुधियों में छवि तेरी है।1।
तन-मन मेरा माटी जैसा,
तेरी छुवन से कंचन बनकर,
जो चाहे जग को दिलवाते,
योग-भोग में इसे तपा कर।
मन की गॉठ सभी खुल जाते,
कृपा-दृष्टि जो फेरी है।
रोम-रोम में नाम तुम्हारा,
सुधियों में छवि तेरी है।2।
अर्पण और समर्पण तेरे,
चरणों में यह जीवन है,
प्रेम-सुधा घट छलका देना,
गुरुवर यही निवेदन है।
मुझ मूरख को क्षमादान कर,
हर सॉस तुम्हारी चेरी है।
रोम-रोम में नाम तुम्हारा,
सुधियों में छवि तेरी है।3।
अब तो बॉह पकड़ लो मेरी,
अपने हृदय लगा लेना,
नयन-कोर की स्नेह-वृष्टि से,
जीवन धन्य बना देना।
चरणों की पग-धूलि मुझे दो,
यही स्वर्ण की ढ़ेरी है।
रोम-रोम में नाम तुम्हारा,
सुधियों में छवि तेरी है।4।
रचना मौलिक,अप्रकाशित,स्वरचित,सर्वाधिकार सुरक्षित है।
हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश;
रायबरेली (उप्र) 229010
शीर्षक:-जय शिव शंकर जय अविनाशी।
जय भोले जय घट-घट बासी,
जय शिव शंकर,जय अविनाशी।टेक।
भस्म ललाट त्रिपुण्ड सजाते,
व्याघ्र-चर्म पर ध्यान लगाते।
ग्रीवा शोभित नाग विषैले,
गंग जटा भव पार लगाते।
भटक न जाऊॅ कहीं राह में,
अब टेर सुनो हे कैलाशी।
जय भोले जय घट-घट बासी,
जय शिव शंकर जय अविनाशी।1।
मातु शिवा कल्याणी सहचर,
सुत गणेश, हो स्वयं दिगम्बर।
दुष्ट विनाशक कार्तिकेय सुत,
गुणगान करे नीला अम्बर।
विश्व-पूज्य अति पावन नगरी,
रुचिकर धाम सुहावन काशी।
जय भोले जय घट-घट बासी,
जय शिव शंकर,जय अविनाशी।2।
सृष्टि-मूल हो,सृष्टि-संहारक,
अवढ़र दानी ,सौख्य-प्रदायक।
शरणागत को मोक्ष प्रदाता,
नेत्र तीसरा पीड़ा दायक।
करो कृपा भव-बन्धन छूटे,
पथ प्रशस्त हो मिटे उदासी।
जय भोले जय घट-घट बासी,
जय शिव शंकर,जय अविनाशी।3।
हरिश्चन्द्र त्रिपाठी’हरीश;
शीर्षक;-कोई नहीं है अपना।
तुमसे सुन्दर,तुमसे मनहर,
कोई नहीं है अपना।
अनुभूति तुम्हारे अपनेपन की,
बाकी सब कुछ सपना।टेक।
चुपके से जब मलयज आकर,
ऋतु से कुछ कह जाता है,
दृग-दीवट पर तेरी सुधि का,
नेह-दीप जल जाता है।
पीर हृदय की किसे सुनाता,
यही नियति चुप रहना।
तुमसे सुन्दर, तुमसे मनहर,
कोई नहीं है अपना।1।
कैसे कह दूॅ मन बौराया,
सुन ताल सुरीली कोयल सी,
पत्ते-पत्ते की आहट से,
सुध-बुध खोती कोंपल सी।
मनमानी कर कहता भवॅरा,
बस तुझमें खोए रहना।
तुमसे सुन्दर,तुमसे मनहर,
कोई नहीं है अपना।2।
तुमको गुम-सुम पाकर मन की,
बेचैनी बढ़ जाती है,
खिल-खिल हॅसता तव चन्द्रानन,
रूप शिखर चढ़ जाती है।
सुधि में किरन भोर की बन कर,
मधुर निशा संग रहना।
तुमसे सुन्दर,तुमसे मनहर,
कोई नहीं है अपना।3।
हरिश्चन्द्र त्रिपाठी’हरीश;
रायबरेली
शीर्षक:-ऋतु सावन की आई है।
चहुँओर घटा छाई है,
मौन खड़ी पुरवाई है।
मेघ गगन में गरज रहे,
ऋतु सावन की आई है।टेक।
तेरी सुधि के बादल आकर,
मेरे ऑगन बरस गये,
झूम उठा इक पल मन मेरा,
नयन दरश को तरस गये।
सुध-बुध खोई-खोई लगती,
थिरक उठी तरुणाई है।
चहुँओर घटा छाई है,
मौन खड़ी पुरवाई है।1।
खेतों के मेंढ़क बोल रहे,
दादुर,चकोर चित खोल रहे।
बंसवारी से इन्द्रधनुष बन,
लगता प्रियतम डोल रहे।
टप-टप चूती हुई ओरौनी,
बहॅक रही अंगनाई है।
चहुँओर घटा छाई है।
मौन खड़ी पुरवाई है।2।
रिमझिम बूॅद बरसते बादल,
तन-मन आग उगलते बादल।
बीच-बीच में बिजली चमके,
अनगिन रंग बदलते बादल।
बिन साजन के नागिन जैसी,
अंग – अंग अंगड़ाई है।
चहुँ ओर घटा छाई है।
मौन खड़ी पुरवाई है।3।
रचना मौलिक,अप्रकाशित,स्वरचित,सर्वाधिकार सुरक्षित है।
हरिश्चन्द्र त्रिपाठी’हरीश;
रायबरेली (उप्र) 229010