चिपकी मलाई | सम्पूर्णानंद मिश्र
चिपकी मलाई | सम्पूर्णानंद मिश्र
होनी चाहिए भाषा मीठी
क्योंकि
भाषा बांधती है
आकृष्ट करती है सबको
भाषा का माधुर्य
आईना दिखाती है
हमारे संस्कारों का
लेकिन
अतिशय मीठी भाषा हमें
लक्ष्य से भटका देती है
दरअसल
जब मीठी भाषा
सजती, संवरती है
अपना श्रृंगार करती है
तो वह विष की थाली में चिपकी मलाई सी होती है
जहां सिर्फ़ और सिर्फ़ मलाई
दिखती है
विष नहीं
जादूगर होता है शिकारी
वह जानता है
तमाशे के प्रभाव को
और
चिड़ियों के भोलेपन को
वह उनकी आंखों को पढ़ता है
और तमाशे का नया- नया
मुहावरा गढ़ता है
मलाई और चिड़ियों की आंखों के संबंधों की
बारीक जांच करता है
और नासमझ चिड़िया
इस तमाशे को
सत्य माने बैठती है
और उनके चक्रव्यूह में
फंसकर दम तोड़ती है.
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