काली रात | सम्पूर्णानंद मिश्र
काली रात | सम्पूर्णानंद मिश्र
(16 दिसंबर 2012)
राष्ट्र कलंकित करने वालों को
सजा आखिर मिल गई
सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से
चार दरिंदों की गर्दनें झूल गई
एक दिन भी ऐसा नहीं हुआ
जिस दिन अपने टुकड़े को भूली हो
नर- दरिंदों ने इस तरह उसको
काटा
मानो कोई गाजर और मूली हो
छुप-छुपकर उसकी मां सबसे इतने सालों तक रोई थी
सात वर्षों से कभी पूरी रात
नहीं वह सोयी थी
तनया नहीं वह उसकी खलील थी
जो उसकी आशाओं की खलूक़
बिखेरने निकली थी
उसको क्या मालूम
आज की रात आखिरी है
नहीं, मां की ममता के क्रोड
में चैन से वह सो जाती।
मां की होकर मां के पास
ही रह जाती
न्यायालय के चौखट पर सात वर्षों से उस अबला की आवाज दबायी
जाती थी
रोज सूर्यास्त होने पर निराश होकर घर लौटकर आ जाती थी
इतने आंसू निकले कि निकल निकलकर थक गए!
हिम्मत कभी नहीं टूटी फिर भी
वह तो केवल अपने लक्ष्यों में जुटी थी
झूठ की छाती चीरकर आज सत्य की देवी प्रकट हुई
गहमागहमी ही सही उस अबला
की जीत हो गयी
बेटी तो नहीं लौटकर आयी
लेकिन इंसाफ के मंदिर में वह खो गई !
यह दिवस समर्पित उस बेटी निर्भया को जो इस दुनिया में अब नहीं है
सम्पूर्णानंद मिश्र
शिवपुर वाराणसी
7458994874