karm aur karmaphal-कर्म और कर्मफल/आशा शैली
karm aur karmaphal
कर्म और कर्मफल
एक दिन सुबह सवेरे ही कर्म और भाग्य के सम्बंध पर विचार कर रही थी और आज ही फल सामने आ गया। उन दिनों मैं जब हिमाचल में थी तभी मैंने तय किया था कि नवोदितों की सहायता अवश्य करूँगी। यह निर्णय आकाशवाणी पर हुई टांग खिंचाई के कारण लिया गया। तब मैं लगभग नवोदित ही थी। यानि आकाशवाणी और दूरदर्शन से अपरिचित।
अपने इस संकल्प के चलते जब, जहाँ हो सका नयी प्रतिभाओं को मंच के निकट लाने का प्रयास किया। हालांकि मैं अकिंचन स्वयं कुछ भी नहीं, फिर भी साहित्य के क्षेत्र में इतना लम्बा मार्ग तय कर चुकने के बाद ऐसे कुछ लोग अवश्य ही हैं जो सगर्व मेरा नाम भी लेते हैं। परन्तु उस दिन का जैसा सुखद कभी अनुभव नहीं हुआ।
हुआ कुछ यूँ कि मेरे नगर लालकुआँ में ही मेरे पड़ोस का ही बच्चा शाश्वत अरोरा, पता नहीं कब से कलम घिसाई कर रहा था। मैं शाश्वत के डॉक्टर पिता से दवा लेने कभी-कभार जाती थी। एक दिन वे कहने लगे
“दीदी, ये मेरा बेटा है, शाश्वत! देखिए ज़रा इसकी डायरी।”
मैं ने देखकर कहा, “कुछ सुनाओ।” तो बच्चे ने माँ पर लिखी कविता सुनाई। बहुत हल्के सुधार की आवश्यकता थी, मुझे अच्छा लगा।
अब वो अक्सर रचना मुझे दिखाता तो मैंने देखा, तुकान्त और भाषा की दृष्टि से बहुत कम त्रुटियाँ होतीं। ऐसे एक बंधु मेरे पास और भी हैं जिनका नाम सत्यपाल सिंह ‘सजग’ है पर उनकी बात फिर कभी। आज का दिन शाश्वत अरोड़ा के हिस्से।
कालिंजर सम्मान से सम्मानित मध्य में आशा शैली |
तो मित्रो! हुआ यूँ कि, जैसे ही पूजा से निवृत हुई, गया जी से शाश्वत का फोन आया। शाश्वत उन दिनों गया जी में मगध विश्वविद्यालय में कोई प्रशिक्षण ले रहा था। परन्तु मुझे इस बात का पता नहीं था। वह जब घर आता तो चाहे थोड़ा ही समय हो मेरे पाँव छूने आ जाता। मुझे लगा शाश्वत घर आया है। मैंने पूछ लिया, “कब आए तुम?”
“नहीं आँटी। मैं अभी गया जी में ही हूँ। पर मैं आप को गया जी अपने कॉलेज की तरफ से निमंत्रण दे रहा हूँ। हमारे कॉलेज में २२ दिसम्बर को कवि सम्मेलन है। और मेरे हाँ कहने के बाद थोड़ी ही देर में मेरे फोन पर टिकट भी आ गया। सच! बता नहीं सकती कि क्या मिला, खुशी या आत्मतुष्टि।
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थोड़ी देर बाद फिर फोन आया, “आंटी आप नहीं जानते, आज मैं कितना खुश हूँ। आप ने हाँ कर दी, मुझे सबकुछ मिल गया। मुझे याद है पहला मंच मुझे आप ही ने दिलाया था। मैं बहुत खुश हूँ। ”
मैंने कहा, “मैं भी बहुत खुश हूँ शाश्वत। ऐसे बच्चे किसे मिलते हैं?”
समय पर शाश्वत अपने एक मित्र के साथ स्टेशन पर खड़ा था मुझे लेने के लिए। थोड़ी देर में ही मगध विश्वविद्यालय का गेट सामने था। गेट पर नज़र पड़ते ही मुझे लगा मैं हवा में उड़ रही हूँ। वह वहाँ बॉयज़ हॉस्टल में रह रहा था। हॉस्टल में मेरे लिए कमरा खाली कराया गया था और शाश्वत की कुछ मित्र लड़कियाँ मेरे लिए समय दे रही थीं। मेरी हर सुविधा का ध्यान रखना जैसे उनका पूजा कर्म हो।
शायद उनके कॉलेज का वार्षिक अधिवेशन था। कार्यक्रम दूसरे दिन रात के समय था। मेरे एक परिचित कवि *संजय विज्ञात* भी पानीपत से आये थे शाश्वत के निमन्त्रण पर। शाश्वत ने एक ई-रिक्शा की व्यवस्था कर दी थी, जिससे हम लोग गया जी के सभी मन्दिरों में दर्शन कर आये।
कवि सम्मेलन में अधिक नहीं, स्थानीय कवियों को मिलाकर कुल ग्यारह प्रतिभागी थे। शाश्वत हुमक हुमक कर अपने प्राध्यापकों और विश्वविद्यालय के अधिकारियों को मेरा परिचय गुरू माँ कहकर दे रहा था। मन भीग रहा था संतुष्टि के मेंह में। कवि सम्मेलन शुरू हुआ। दिसम्बर की रात, खुला पण्डाल, चारों ओर से आक्रमण करती हवा। नियमानुसार कविगण माइक पर पूरी तरह कब्जा करने के लिए कटिबद्ध। मेरा नम्बर अंत में ही आना था, अध्यक्ष होने का यह लाभ भी तो मुझे ही मिलना था।
पण्डा लगभग खाली हो चुका था, शाश्वत भी परेशान हो रहा था। छात्र छात्राओं के समूह इधर-उधर अलाव जलाए बैठे थे, अब अध्यक्ष को भी अपना धर्म निभाना था। माइक मेरे हाथ में था और मैं खाली पंडाल को देख रही थी। दो-चार शब्द धन्यवाद के बोल कर मैंने ग़ज़ल पढ़नी शुरू की। इतनी सर्दी के बाद भी गले ने साथ दिया
“आज महकी है चाँद रात ग़ज़ल हो जाए
क्यों भटकने लगे जज्बात, ग़ज़ल हो जाए।
और मैंने देखा, छात्रों के टोल भागते हुए आ रहे हैं। देखते ही देखते पण्डाल फिर से हर गया। अब बहुत से छात्र खड़े भी थे। कुर्सियों पर जगह नहीं थी।
दूसरे दिन छात्र मुझे बता रहे थे कि “मैम! आप को सुनने के लिए तो हम सारी रात जाग सकते हैं।
अगले दिन स्थानीय कवि मुकेश सिन्हा अपने भाई के साथ मिलने आए। अपने प्यारे से कविता संग्रह और मीठी गंजी के साथ। और मैंने भीगी आँखों से शाश्वत से उस समय के लिए विदा ली। आज शाश्वत एक अच्छे पद पर पटना में है। खुश रहो बच्चे।