कसूर | सम्पूर्णानंद मिश्र | हिंदी कविता

  • कसूर

वे मासूम थे
हां
बिल्कुल मासूम थे

कसूर क्या था उनका
बस इतना कि
नहीं खेल रहे थे
किसी खिलौनों से

नहीं झूल रहे थे पार्क के
किसी झूले में

बालपुस्तिका
भी नहीं थी हाथ में

न ही उड़ रही
थी कल्पना उनकी
आकाश में

फिर
कसूर क्या था
उनका

कि
जिस अवस्था में
बच्चे ज़िद करते हैं
घर में मैगी
नूडल्स चाऊमीन के लिए

क्या वे इसी ज़िद की
चक्की में पीस दिए गए
गेहूं की तरह

या
आपस में
जैसे
और भाई -बहन
लड़ा करते हैं
किसी सामान के लिए
वे भी खूब लड़ रहे थे

और
माताओं के गुस्से से
उठे सख़्त हाथों ने
उनके गालों पर
आकृतियां खींच दी थीं

नहीं
शायद ऐसा होता
तो आज वे
जीवित होते

क्रूर काल के
विमान पर बैठकर
यमराज के यहां
मरने वालों की सूची में
नहीं दर्ज़ कराते
अपनी उपस्थिति

वे तो मासूम थे
बिल्कुल मासूम
अबोध निर्दोष

दुनिया की फितरत
से बहुत दूर
सियासत के रंग की
न ही कोई पहचान

धर्म की गलियों से
न ही कोई वास्ता

उनकी
चंचलता की
किलकारियां तो कई
वृद्धों में नवजीवन
पैदा कर देती थी

उनकी हंसी
मुहल्ले के रोगियों के
उच्च रक्तचाप को
नियंत्रित करती थी

फिर क्या
कसूर था उनका

बस इतना था
कि
वे मां वैष्णो देवी
के दर्शन के लिए
अपने माता-पिता के साथ
बस की खिड़कियों से
कायनात निहार रहे थे

सम्पूर्णानंद मिश्र
शिवपुर वाराणसी
7458994874

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