लगन के आगे मंजिल क्या ? | अनुज उपाध्याय
लगन के आगे मंजिल क्या ?
लगन के आगे मंजिल क्या,
किरण के आगे बादल क्या,
दृष्ट के आगे दर्पण क्या,
सृष्टि से बढ़के अर्पण क्या,
जीवन से बढ़कर झूठा क्या है,
मौत से बढ़कर सच्चा क्या,
क्योंकि अमन की राह पर बढ़ा नहीं कोई
कड़वे घूंट पिए बिना,
निस्वार्थ तुझपर खड़ा नहीं कोई छल कपट किए बिना,
जानू कैसे इस दुनिया में कौन मेरे लिए बना,
मां-बाप से बढ़कर कोई नहीं न बीते दिन दुवा बिना,
और खिलता कमल कभी न सोचे यह कीचड़ यह दलदल क्या,
लगन के आगे मंजिल क्या,
किरण के आगे बादल क्या।
अग्नि से बढ़कर पवित्र कौन,
पुरुषार्थ से बढ़कर चरित्र कौन,
विवेक से बढ़कर मित्र कौन,
चाहत से बढ़कर दरिद्र कौन,
सत्कर्म से बढ़कर कर्म कौन,
मानवता से बढ़कर धर्म कौन,
पर धूमिल गगन के धुंध पवन में कल्पना में खोया जो ,
यथार्थ को आघात समझ बेपनाह है सोया जो,
इतना सोया कल्पना में, असल दूर हुआ है वो,
धन ,धर्म और सम्मान से बिछड़, फूटकर रोया वो,
अधिक सोचने वाली है जो वर्तमान की पीढ़ी वह,
पर कठिन प्रयत्न मांगती है जो कीर्तिमान की सीढ़ी वह,
और संकल्प की ताकत कभी न सोचे ये मुश्किल नामुमकिन क्या,
लगन के आगे मंजिल क्या,
किरण के आगे बादल क्या।
जो जल्द मिला वह रुका नहीं,
जो मिला हुआ वह दिखा नहीं,
हे चंचल मन! तू थमा नहीं,
भजता राम, श्याम पर क्षमा नहीं,
तू दो शब्दों से बना हुआ ,
निश्छल पर हुई अशंका क्यों,
तू भौतिकता पर अड़ा हुआ,
बजती ना कर्म की डंका क्यों,
तू मीठे बातिल पर चढ़ा हुआ,
देखी ना सत्य की मंशा क्यों,
तू स्वार्थ प्रेम पर खड़ा हुआ,
ना देखी देश प्रेम अनंता क्यों,
तू नाज है,तू ताज है पर तुझमें बसी लाज नहीं,
तू अल्फाज है, आलाप है, पर तुझमें वह अश्फाक नहीं,
जो पहले चूमे कर्म, सवाल उसका शर्म क्या ,
कर्मठ पूजे अंतर ध्यान, उसके आगे धर्म क्या ,
हरी भी भाता ऐसा मानुष जिसकी सोच चीर व्यथा,
लगन के आगे मंजिल क्या ,
किरण के आगे बादल क्या।
बचपन से बढ़कर जश्न कहां,
नटखट अलबेले प्रश्न कहां
वह उम्र से बढ़कर सीख कहां,
अविचल याद सी लीक कहां,
वह क्षणिक बदलता रूप कहां,
वह रोष कहां, वह प्रणय कहां,
क्योंकि बालपन में कहे सत्य को सभी जना ठुकराते हैं,
मगर ना बदले कथन कभी ,चाहे जितना दुलराते हैं,
हों चंचल चपल भले ही , आदर्श रूप दिखलाते हैं,
बड़े लक्ष्य की तनिक खुशी में झूम झूम इठलाते हैं,
तू व्यर्थ मांगता है संबल को,
याद कर जरा बचपन को,
आनंद ना दूर जायेगा,
हौसला कभी न खोएगा,
अवश्य कहेगी वाणी तेरी, यह व्यथा यह पीड़ा क्या,
लगन के आगे मंजिल क्या ,
किरण के आगे बादल क्या ।
अनुज उपाध्याय