लेखनी चलती रहो तुम / डॉ. रसिक किशोर सिंह नीरज
लेखनी चलती रहो तुम
लेखनी चलती रहो तुम
बात सच कहती रहो तुम ।
स्याह नीली हो या पीली
लाल सूखी हो या गीली
भावनाओं संग में तुम
रूप का आयाम हो तुम
लेखनी चलती रहो तुम ।
मत रहो मुझसे विलग तुम
शब्द का सौंदर्य हो तुम
बात अंत: की कहो तुम
संग हरदम ही रहो तुम
लेखनी चलती रहो तुम ।
बह सदा निर्मल नदी सी
धार हो पावन मती सी
ना बहूं संसार में फिर
बांह अब मेरी गहो तुम
लेखनी चलती रहो तुम।
है अमावस ज्ञान जैसा
योगियों का ध्यान जैसा
साधना परिणाम जैसा
पूर्णिमा श्रृंगार हो तुम
लेखनी चलती रहो तुम ।
स्पर्श करती भाव हो तुम
शब्द गढ़ती चाव हो तुम
गीत में रस गंध हो तुम
काव्य- रूप अनंत हो तुम
लेखनी चलती रहो तुम ।
भेद नीरज सृष्टि क्या है ?
जीत क्या है हार क्या है ?
जग अपावन सार क्या है ?
जगत का विस्तार हो तुम
लेखनी चलती रहो तुम।
बात सच कहती रहो तुम।। – डॉ. रसिक किशोर सिंह नीरज