वे दिन बचपन के | Mera Bachpan Par Kavita

वे दिन बचपन के | Mera Bachpan Par Kavita

वे दिन बचपन के  ,डॉ. संपूर्णानंद मिश्र  द्वारा रचित बचपन के दिनों में घटित आनंददायक घटनाओं का सुंदर चित्रण करती हुई वात्सल्य रस से भरा अद्भुत रचना है जिसे पढ़कर अपना बचपन व बीते दिनों की सुंदर स्मृतियां मानस में पुनः ताजा हो गई। उन दिनों न किसी प्रकार के जिम्मेदारियों का बोझ न हीं धार्मिक भेदभाव व छुआछूत की भावना, मिलजुल कर रहने की आदत जैसे भाव को जिस तरह से डॉ मिश्र ने इस रचना में काव्यात्मक शैली में अपने भाव को व्यक्त किए हैं वह अत्यंत प्रशंसनीय है। बहुत याद आती है वो बचपन का गुल्ली डंडा, सुतुर, अक्कड़ बक्कड़, माचिस की पासा का पीठठो, बाउजी से छुपकर क्रिकेट खेलने जाना और वापस आकर उनसे छुप छुपाकर रहना। पिल्लो खेलना क्या वो भी दिन थे। होली के लिए लकड़ी काटना और होलिका को सजाना, न जाने उम्र और जिम्मेदारी के बोझ तले बचपन कब चला गया पता ही नहीं चला।

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वे दिन बचपन के


न काम की चिंता
न गृहस्थी का बोझ
क्या सुबह क्या शाम
मस्ती में होते थे
राम और श्याम
खेलते थे होला पाती
मचाते थे शोर
गांव के घूरहू दद्दा की
नींद में लगाते थे सेंध
धोती उठाते थे कभी
कभी लोटा छिपाते थे
गोजी उनकी ले
बगीचे में भाग जाते थे
गरियाती थी पत्ती आजी
दूर तलक दौड़ाती थी
न पाने पर
निबहुरा मुंहझौसा के
अलंकरण की माला पहनाती थी
कोल्हू में छिपकर
बड़ा मज़ा आता था
ऐसी दुनिया में
हर कोई जीना चाहता था
विधाता भी देखते थे
हम लोगों का खेल
चलाते थे जब हम अपनी शताब्दी रेल
संझा होते खेलते थे
आइस पाइस
उम्र नहीं होती थी किसी की
सत्ताईस के आस पास
छुपते थे कभी
भौजी की मसहरी के नीचे
होते थे कभी दालान के पीछे
दौड़ते थे घंटों
इस घर उस घर
न होती थी कोई
भेद- भाव की दीवारें
लगाते थे जब कल्पना के पंख
सुनते थे कानों में दूर से ही
पंडित जी के शंख
न होती थी नफ़रत की रातें
न होती थी निंदा- चुगली की बातें
सदा रहती थी दीवाली
ओंठो पर रहती थी
सदा प्रसन्नता की लाली
राजा बड़का बाबू के भैंसों
की बांधते थे जब पूंछ
तो नीक नेवर गरियाते थे खूब
कभी- कभी पकड़कर
एक दो चाटा भी लगाते थे
छूटने पर हम लोग भी
उनके विरुद्ध नई- नई
योजना बनाते थे खूब
पूरे गांव की ख़बर ले
आते थे हम लोग
बिना डाकिया की वर्दी पहने
चिट्ठी सबकी बांट आते थे खूब
बचपन के वे दिन
कितने सुंदर थे

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सम्पूर्णानंद मिश्र
फूलपुर प्रयागराज
7458994874

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