संस्पर्श | सम्पूर्णानंद मिश्र
लालच विहीन आँखें
देखना चाहती हैं
छूना चाहती हैं
और चाहती हैं कुछ वक्त
अपनी संतति से
लेकिन भौतिकता की
अंधी दौड़ में
आज की पीढ़ी
सस्ते दामों में
अपना वक्त
बेचकर
जब घर आती है
तो वह फूली नहीं समाती
कि
शीर्षस्थ हूँ
आर्थिक विकास के
मानचित्र पर
नहीं हो सकता
प्रतिस्पर्धी मेरा कोई
देखा जाय
तो पूर्णतः यह छद्माभास है
आँखों में
अभी-अभी उतर आई
भ्रम का कोई
नया काला मोतियाबिंद है
किस दौर से गुजर रहे हैं
हम लोग
कि
जिस कोख ने
हम लोगों को जना है
उसी के
लिए वक्त नहीं!
लक्ष्मण- रेखा के भीतर
कितने अनमोल आँसू चूते हैं
कितनी बार टूटते हैं
कितनी बार लड़खड़ाते हैं
हर बार खड़े हो जाते हैं
अपनों के
पाने की ख्वाहिश में
टूटना लड़खड़ना
जैसे उनकी नियति हो गई हो
पूर्ण विकास के चमकते
ग्राफ की रोशनी में
भले ही न महसूसे
आज की संतानें
कोई मूल्य न हो
माता- पिता के आशीर्वाद का बाजारों में
लेकिन
इतना तय है कि
जिन उपलब्धियों पर
उनके आशीर्वादात्मक हाथों का संस्पर्श न हो
वह उपलब्धि
पूर्णरूपेण मूल्यविहीन हैं।
सम्पूर्णानंद मिश्र
शिवपुर वाराणसी
7458994874