सुरेखी काकी | रत्ना सिंह | हिंदी कहानी

सुरेखी काकी | रत्ना सिंह | हिंदी कहानी

वक्त कब बदल जाए ये बात सुरेखी काकी को पता‌ थी लेकिन इतना बदल जायेगा उससे बिल्कुल अनभिज्ञ थी । वैसे भी वे ज्यादा इधर उधर की बातों में समय जाया नहीं करती बस पूरा दिन बच्चों में या फिर रोजमर्रा के कामों में व्यस्त रहती या फिर कपड़े सिलती। पति से तो कई साल पहले अलग हो गरी थी क्या करें कितना मार खाती और कब तक ?इसलिए उन्होंने अपना गांव बस्ती खेड़ा छोडकर छोटे से शहर लालगंज आ गयी ।

मेरे घर के सामने ही रहने लगी । कपड़े सिलकर बच्चों को भी पहनाती और पेट भी पालती बच्चों को पढ़ाती भी हां लेकिन फर्क इतना की ऊंची इमारत में बने वे बड़े बड़े स्कूल में —–। उनका कोई भी त्योहार ऐसा नहीं जाता की वे स्वादिष्ट पकवान न बनाये एक बार मकर संक्रांति पर मेरी मम्मी मामा के घर गयी थी तो सुरेखी काकी ने बुलाकर खिचड़ी और फिर शाम को पूड़ी, कचौड़ी, दाल मखनी ,दही बड़े कढ़ी एक सबसे ज्यादा पसंदीदा पना जिसमें वे बरे डालकर प्लेट में जमा दिया और फिर बर्फी के जैसा काटकर दिया मजा आ गया था, लगा ही नहीं कि आज मम्मी घर पर नहीं हैं। समय बीतता गया बच्चे पढ़ लिखकर बड़े हो गए और दोनों नौकरी की तलाश में निकलें और आज तक वे ——-।

आज फिर मैं सुरेखी काकी के हाथ के बने पकवान खाने गयी तो देखा आज वे घुटनों में सिर दिये बैठी सिसक रही हैं रसोई को देखकर लगा कि कई दिनों से खाना नहीं बनाया हो । सुरेखी काकी उठो आज तो मकर संक्रांति है और आप ——-। सुरेखी काकी लड़खड़ाती हुई आवाज में -क्या करूं बिटिया दुनव लरिकन से बात करेन कहेन चले आव मना कई दिहिन फ़िर कहेन अच्छा थोडे रपईया पठय दियों तो वहव नहीं दिहिन अब—–। और काकी जोर जोर से रोने लगीं मैंने उनको कहा लाओ मैं बात करती हूं। फोन नंबर लेकर मैं बात करने लगी । मना तो मुझसे भी किया था , महज काकी को ढांढस बंधाने के लिए काकी से कहा ‘सुरेखी काकी आपका बेटा कल आयेगा और आज ये लो सौ रुपये त्योहार मनाओ अच्छा सुनो खाना मैं भी आपके साथ खाऊंगी। काकी त्यौहार के पकवान में लग गयी और मैं कल बेटा नहीं आयेगा तो कैसे सभालूगी सुरेखी काकी को उसका जवाब ढूंढने में जोकि ——-?

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