वरिष्ठ साहित्यकार हरिश्चन्द्र त्रिपाठी’हरीश’ का रचना संसार
शीर्षक:- परिभाषा लिखता हूॅ
सम्बन्धों के धूप-छॉव की,
परिभाषा लिखता हूॅ,
टूटे दर्पण की पीड़ा-
अभिलाषा लिखता हूॅ।टेक।
मस्त नाचते मोर-मोरनी,
जंगल की हरियाली में,
चातक,दादुर खूब थिरकते,
घिरी घटा मतवाली में।
कोंपल कलिका व्यथित विरहिणी ,
की जिज्ञाशा लिखता हूॅ।
सम्बन्धों के धूप-छॉव की,
परिभाषा लिखता हूॅ।1।
चपला सी रवि-रश्मि थिरकती,
कल-कल नदिया निर्झर झरते,
तरु-तर उपवन गीत प्रणय के-,
सुरभि सलोनी मलयज बहते।
अंकवारी भेंट-मिलन की,
प्रति आशा लिखता हूॅ।
सम्बन्धों के धूप-छॉव की,
परिभाषा लिखता हूॅ।2।
निर्मल उर की सतरंग चूनर,
जब-जब धूमिल दिखती है ,
अपना सा ही मुॅह लटकाये ,
तब सब दुनिया मिलती है।
लोभ,मोह,अभिमान प्रखण्डित,
दुरभाषा लिखता हूॅ।
सम्बन्धों के धूप-छॉव की,
परिभाषा लिखता हूॅ।3।
रचना मौलिक,अप्रकाशित,स्वरचित,सर्वाधिकार सुरक्षित है।
हरिश्चन्द्र त्रिपाठी’हरीश;
रायबरेली (उप्र) 229010
शीर्षक:-अम्बर रूठ गया है।
तहस-नहस हो रही धरित्री,
अम्बर रूठ गया है,
शस्य-श्यामला धरती से अब,
रिश्ता टूट गया है।
दिनकर ताप प्रचण्ड दिखाता,
कण-कण पवन बहे झुलसाता,
तरुतर-उपवन झुलस गये हैं,
ताल-सरोवर नहीं सुहाता।
फटी बिवाई पैरों की ज्यों,
मुखड़ा सूख गया है।
तहस-नहस हो रही धरित्री,
अम्बर रूठ गया है।1।
दरक रही भूधर की चोटी,
असमय वृष्टि अपार हो रही,
राज मार्ग सरिता बन जाते,
पूरी सृष्टि तबाह हो रही।
अनायास बादल फट जाते,
धीरज टूट गया है।
तहस-नहस हो रही धरित्री,
अम्बर रूठ गया है।2।
सुख साधन सम्पन्न जनों को,
निर्धन की पीड़ा कब दिखती,
लत्ते को मुॅहताज जवानी,
पल-पल प्रलय धपेड़े सहती।
तपती छत दीवार न कोई,
आकर पूछ गया है।
तहस-नहस हो रही धरित्री,
अम्बर रूठ गया है।3।
हरिश्चन्द्र त्रिपाठी’हरीश;
सजल
शीर्षक:- निहार लो मुझे।
जब भी पुकारूॅ प्यार से,निहार लो मुझे,
आशिक तुम्हारा प्यार हूॅ,सवॉर लो मुझे।1।
पूछो न किस तरह से,कटती है जिन्दगी,
ख्वाबों के हर खयाल से,उबार लो मुझे।2।
किसने लगा दी आग,जंगल सुलग रहा,
घुटने लगी है सॉस भी,निकाल लो मुझे।3।
तेरे हुश्न का ये जल्वा,परवरदिगार जाने,
यदि तुझको गुरूर हो तो,बिसार दो मुझे।4।
जलने लगे हैं लोग क्यूँ,शोहरत से तेरे अब,
जल जाए न परिन्दा ये,फुहार दो मुझे।5।
रस्मो-रिवाज उल्फत के,जब रास नहीं आते,
नजरों से अपने जानेमन,उतार दो मुझे।6।
हरिश्चन्द्र त्रिपाठी’हरीश;
शब्द –मलय
मलय बुहारे द्वार हमारे,
शुचि सुरभित घर-ऑगन हो,
मधुबन की वह गन्ध सुहानी,
महकाता उर-पावन हो।टेक।
नहीं ग्रीष्म के तपते लू के,
गरम धपेड़े आ जायें,
प्राण तत्व के अमृत रस का,
पान सभी जन पा जायें।
उर्वर भाव-सुमंगल मुकुलित,
स्नेह बरसता सावन हो।
मलय बुहारे द्वार हमारे,
शुचि सुरभित घर-ऑगन हो।1।
मलयाचल से भर-भर ऑचल,
दिग्दिगंत महकाता जो।
बूॅद-बूॅद में स्नेह बरसना,
बादल को सिखलाता जो।
न्यारी-प्यारी छवि उसकी हो,
अनुपल भाव सुपावन हो।
मलय बुहारे द्वार हमारे,
शुचि सुरभित घर-ऑगन हो।2।
कोंपल कली खिले मुसकाये,
शूल फूल को अंग लगाये,
गुन-गुन भवॅरा गीत स्नेह के,
कली-अधर पट पर धर जाये।
ऑचल-ऑचल पवन बसन्ती,
मुखर द्रोण-गिरि कानन हो।
मलय बुहारे द्वार हमारे,
शुचि सुरभित घर-ऑगन हो।3।
रचना मौलिक,अप्रकाशित,स्वरचित,सर्वाधिकार सुरक्षित हो।
हरिश्चन्द्र त्रिपाठी’हरीश;
रायबरेली (उप्र) 229010
शीर्षक:-कितना प्यारा-न्यारा बचपन।
कितना प्यारा-न्यारा बचपन,
याद आज भी आती है,
धमा चौकड़ी ,खेल खिलौने,
पलक भिगो कर जाती है।
दिन गर्मी के साथ सभी के,
खेत-खेत खलिहानों में।
दौड़ – धूप डालों पर बैठें,
डिब्बे फोन बने कानों में।
गुल्ली-डंडा,कंची-गोट्टी-
मन विह्वल कर जाती है।
कितना प्यारा-न्यारा बचपन,
याद आज भी आती है।1।
मिल-जुल खेल खेलते सारे,
लुका-छिपी में राघव प्यारे।
कभी रेल के डिब्बे बनते-,
कभी ‘जागते रहो’ के नारे।
सुन्दर मिट्टी का घर-ऑगन,
हवा महकती आती है।
कितना प्यारा-न्यारा बचपन,
याद आज भी आती है।2।
छीना-झपटी और झगड़ना,
बात-बात में तू – तू मैं – मैं,
लॅगड़ी-दौड़ ,छुआ-छुई में,
सबका सॉस थामना मन में।
हार-जीत तो खेल-कूद में,
पास सभी के आती है।
कितना प्यारा-न्यारा बचपन,
याद आज भी आती है।3।
अब तो बचपन कैद हो गया,
घर के बस दो कमरों में,
लैपटॉप,मोबाइल साथी,
लेंस लग रहे नजरों में।
बचपन कैसे स्वस्थ-निरोगी,
चिन्ता यही सताती है ।
कितना प्यारा-न्यारा बचपन,
याद आज भी आती है।4।
रचना मौलिक,अप्रकाशित,स्वरचित,सर्वाधिकार सुरक्षित है।
हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश;
रायबरेली (उप्र) 229010