कबीर के राम और तुलसी के राम | अशोक कुमार गौतम
कबीर के राम और तुलसी के राम | अशोक कुमार गौतम
“राम” शब्द को वैज्ञानिक आधार पर भी देखा जा सकता है। “रा” वर्ण का जोर से उच्चारण (महाप्राण ध्वनि) करने पर साँस के द्वारा ऑक्सीजन अधिक मात्रा में अंदर जाती है, और “म” वर्ण का उच्चारण करने पर कार्बन डाई ऑक्साइड बाहर निकलती है।
हिंदी साहित्य में भक्तिकाल को स्वर्णयुग की संज्ञा दी गई है, जिसके अंतर्गत निर्गुण काव्यधारा और सगुण काव्यधारा प्रवाहित हुई। कबीर ने निर्गुण राम को अपना आराध्य माना है तो, तुलसी ने सगुण राम को अपना आराध्य माना है।
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राम, कबीरदास और तुलसीदास दोनों के ईष्ट हैं। दोनों के राम की तुलना भिन्न भिन्न विद्वानों द्वारा की गई है। परन्तु यह तुलना असमानता की ज्यादा, समानता की कम हुई है। निराकार सन्तों का ज्ञान विश्व ज्ञान से अलग है। वे सांसारिक भोग-विलास, माया को त्यागकर परमसत्य अर्थात मोक्ष को पाना चाहते हैं। संत गण भक्ति और कुण्डलिनी योग पर चिंतन करते हैं कि दोनों का अनुपात क्या है? कबीर के राम निराकार हैं। निराकार राम किसी जाति धर्म के बंधन में नहीं हैं, क्योंकि अखिल विश्व में एकेश्वरवाद की कल्पना निराकार काव्यधारा ने की है। कबीर ने कहा है-
कहैं कबीर एक राम जपुहरे, हिन्दू तुरक न कोई।
गोस्वामी तुलसीदास का श्री रामचरित मानस मर्यादा का महाकाव्य है, और उसके नायक हैं- श्री राम। मर्यादा पुरुषोतम, आदर्श प्रजा रंजक शासक के रूप में विद्यमान हैं। तुलसी के राम परमब्रह्म, ईश्वर, सृष्टि के पालनकर्ता, विष्णु के अवतार होते हुए भी क्षमता की सीमाओं और मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं करते हैं। दशरथ के आंगन में सामान्य शिशु की तरह किलकारी मारते हैं, क्रीड़ा करते हैं, गुरु आश्रम में विद्याध्ययन हेतु जाते हैं। किशोरावस्था से ही राम अपने को प्रजा रंजक के रूप में स्थापित करते हैं। राम ग्रामवासियों के लिए लोकमंगल की कामना करते हैं। सभी को सुखी-संपन्न बनाए रखने के लिए हर उक्ति करते हैं-
जेहि विधि सुखी होंहि पुर लोगा।
करहिं कृपानिधि सोई संजोगा।।
तुलसीदास ने राम को विरह वेदना में अश्रुपूरित दिखाया है। निराकार की तरह साकार रूप में भी मनुष्य के अंतःपीड़ा को रामचरित मानस में व्यक्त किया गया है। अरण्यकाण्ड में राम का मनोहारी दर्शन प्रेमी, पति रूप में देखने को मिलता है। वह सीता का ताजे पुष्पों से श्रृंगार करते हैं। श्री राम ने अपने सेवक हनुमान के हाथों जो प्रेम भरा संदेश सीता के लिए भेजा है, वह उनकी सीता के प्रति अनन्य प्रेम का द्योतक है-
कहेउ राम बियोग तब सीता।
मो कहुँ सकल भए विपरीता।।
कबीर और तुलसी दोनों मानवीय मूल्यों व भावना के पोषक हैं। आलम्बन दोनों के अंदर समाया है। दोनों में अंतर सिर्फ इतना है कि कबीर के राम के पास अंतःहृदय है, तो तुलसी के राम के पास हृदय और शरीर दोनों हैं। कबीर रहस्यवादी और उलटबासी सन्त-कवि हैं। तुलसी के राम अपनी अर्धांगिनी सीता के प्रति संयोग श्रृंगार चित्रित करते हैं, तो कबीर स्वयं को ही पत्नी, और ईश्वर को पति मानते हैं। रहस्यवाद का निरूपण करते हुए कबीर ने बताया कि इस संसार रूपी मायका में पति परमेश्वर विदा कराने आए हैं, इसलिए मेरे जाने की खुशी में सभी महिलाएँ मंगल गीत गाएं-
दुलहिंनि गावहुँ मंगलाचार।
हमारे घर आए राजाराम भरतार।।
कबीरदास सच्चे मनोवैज्ञानिक भी थे। उन्होंने राम को किसी कक्ष रूपी मंदिर तक सीमित नहीं किया है। अपितु राम को घट-घट में व्याप्त और यहाँ तक उनको अपने मन-मंदिर में समाया हुआ माना है। इस तथ्य को कबीर सरल भाषा में कहते थे-
कस्तूरी कुण्डलि बसे, मृग ढूंढ़ें वन माँहि।
ऐसे घटि घटि राम हैं, दुनिया देखै नाँहि।।
तुलसी के राम अनुजों के हितैषी, मित्रों के सखा, गुरुजनों के आज्ञापालक शिष्य हैं। राम की विनवत शिष्य मर्यादा भी है, जिसका पालन वनवास काल में ऋषियों से सम्पर्क करते समय उनके व्यवहार में देखने को मिलता है। राम की विश्वामित्र के प्रति विनयशील व्यवहार की बानगी जनकपुर में बार-बार देखने को मिल रही है-
कौतुक देखि चले गुरु पाहीं।
जानि बिलंबु त्रास मनमाहीं।।
तुलसी की रचनाओं में रोज की दिनचर्या में गुरु-शिष्य परम्परा की मर्यादा का मार्मिक चित्रण देखने को मिलता है। तुलसीदास ने राम के माध्यम से रात्रि में शयन के समय बार-बार मुनि आज्ञा दीन्हीं और प्रातःकाल निंद्रा त्यागने के लिए गुरु ते पहिले जगपति जागे राम सुजान का परिचय दिया है।
कबीरदास सगुणोपासक सन्तों से पूँछते हैं कि अंतर व्योम की नीलिमा, भगवान भुवन भास्कर की लालिमा एवं शस्य श्यामलता, धरा की हरीतिमा के पीछे किसकी सत्ता है? स्वर्णिम दिन, मोती सी रात, सुनहली साँझ, सुगन्धित पवन और गुलाबी सबेरा को कौन सा चित्रकार बनाता है? कबीर की राम भावना ब्रह्म भावना से मेल खाती है। इसलिए कबीरदास अपने राम को निराकार मानते हुए कहते हैं कि-
दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना।
राम नाम का मरम न जाना।।
तुलसीदास समन्वयवादी संत कवि हैं। निर्गुण और सगुण को एक समान मानते हैं। राम की शिव से, शिव की राम से पूजा करवाया है, यहाँ तक पशुओं पंक्षियों को भी मानव का सहायक और पथ प्रदर्शक माना है- हे खग मृग मधुकर श्रेनी। तुम देखी सीता मृग नैनी।। कहकर सांसारिक भेदभाव मिटा दिया है। समन्वय की भावना के पोषक होने के कारण अखिल विश्व की लोक मंगलकारी हृदयानुभूति का चित्रण करते हुए रामचरित मानस में लिखते हैं-
कीरति भनति भूति भलि सोई।
सुरसरि सम सब कहँ हित होई।।
कबीरदास को विद्रोही संत कवि की संज्ञा दी गयी है। क्योंकि कबीर कागद में लिखी बातों में विश्वास न करके, आँखिन की देखी को ही परम सत्य मानते थे। वे संसार को धर्म, वंश, जाति, माया, मोह, भोग, अहंकार आदि से मुक्त कराना ही अपने जीवन का उद्देश्य मानते हैं। तुलसी की तरह कबीर भी सदैव परम् ब्रह्म से लोक कल्याण की कामना करते हैं। ईर्ष्या, द्वेष को प्रगति में बाधा मानकर सबकी खुशी की कामना करते हुए कहते हैं-
कबीरा खड़ा बाजार में, माँगे सबकी खैर।
न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर।।
खेलने-कूदने की उम्र में साधु बनना और साधु बनाना भारतीय परंपरा का महत्वपूर्ण अंग और अत्यंत कठिन कार्य है। सिर्फ गेरुआ वस्त्र धारण कर देने से ही साधु परिभाषा पूर्ण नहीं हो जाती है। तपस्या, त्याग, ममता, समता आदि की मनोवृत्ति भी हृदय में उमड़नी चाहिए। अशांति, आडंबर, दूषित मानसिकता, जाति धर्म का बंधन आदि में विजय प्राप्त करने वाला ही सच्चा साधु कहलाता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। ऐसे दक्ष साधु की संगति से समस्त साँसारिक भ्रम दूर हो जाते हैं किंतु छद्म वेशधारी कुपात्र या दुर्जन की संगत मिल जाती है तो, हर घड़ी जीवन में संकट बना रहता है। इसी गूढ़ भाव को चरितार्थ करते हुए कबीर ने संत-असंत, सज्जन-दुर्जन की व्याख्या करते हुए कहा है-
कबीरा संगत साधु की, हरे और की व्याधि।
संगत बुरी असाधु की, आठों पहर उपाधि।।
तुलसीदास ने भी संत-असंत या साधु-असाधु के परिप्रेक्ष्य में कबीर के दोहों को सहमति भाव से देखा है। साधु-संतों की संगति मिल जाने पर जीवन के हर कदम पर आनंद और आत्म सम्मान की अनुभूति होती है। यदि कुटिल, कुचाल असंतों की संगत मिल जाती है तो, जीवन में अशांति फैल जाती है। इसी को साक्षी मानकर तुलसीदास ने तो संतों-असंतों के प्रति समानता की दृष्टि अपनाते हुए दोनों की चरण वंदना की है-
बंदउँ संत सज्जन चरना।
दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना।।
बिछुरत एक प्रान हर लेहीं।
मिलत एक दुःख दारून देहीं।।
मेरा मानना है कि भक्तिकाल के संत कवियों ने किसी के पद-चिन्हों पर चलने की कोशिश नहीं की, बल्कि स्वयं पदचिन्ह बनाया है। ऐसे में उन महापुरुषों ने समाज के कटु अनुभवों से जो भी सीखा है। निडर होकर वही लिखा है। कबीरदास को तो विद्रोही कवि की संज्ञा तक दे दी गई है।
कबीर निरक्षर होते हुए भी रहस्यवाद, दर्शन, मनोविज्ञान, आत्मज्ञान की गूढ़ता आदि के परिचायक हैं। माया मोह अहंकार आदि का भ्रम छोड़कर कर्म को महत्व देते हैं। राम की प्राप्ति के लिए कबीर जंगल में खाक छान रहे हैं। राम के समान ही कोई सात्विक विचारधारा का पुरुष मिल जाने पर यदि बिगड़ा कार्य बन जाए या पूर्ण हो जाए तो, वह इंसान भी “राम” से कम नहीं है। जिसके संदर्भ में कबीर ने कहा है-
कबीर वन वन में फिरा, कारनि अपने राम।
राम सरीखे जन मिले, तिन सारे सब काम।।
राम अखिल ब्रह्मांड में एक ही है। निर्गुण, सगुण या अन्य धर्मानुयायियों ने राम की व्याख्या अपने-अपने शब्दों में करते हुए परमात्मा को श्रेष्ठ माना है। कहीं नाम की श्रेष्ठता है, तो कहीं रूप की श्रेष्ठता। इन दोनों शब्दों की कहानी अकथनीय है। नाम-रूप समझने में सुखदायक है, परंतु उसका वर्णन उसी प्रकार नहीं किया जा सकता है, जिस प्रकार गूंगा व्यक्ति मीठे फल का स्वाद का वर्णन नहीं कर सकता है। तुलसीदास ने कर्म को ही महत्व दिया है-
करम प्रधान विश्व रचि राखा।
जो जस करहिं सो तस फल चाखा।।
कबीर और तुलसी के राम भले ही अलग-अलग रूपों में हो, किंतु दोनों संतों का मूल उद्देश्य एक ही है- लोकमंगल की भावना और मोक्ष की प्राप्ति। कबीर अनपढ़ थे किंतु उन्होंने तत्कालीन परिस्थितियों को देखकर जो भी कहा था, वह दोहा पद आज भी उतना ही प्रासंगिक हैं, जितने कल थे-
ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोई।
औरन को शीतल करै, शीतल आपहुँ होई।।
अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर, साहित्यकार
वार्ड नंबर 10, शिवाजी नगर
रायबरेली यूपी
मो० 9415951459