सभ्यता की कमीज़ | सम्पूर्णानन्द मिश्र की नई कविताएँ
सभ्यता की कमीज़ | सम्पूर्णानन्द मिश्र की नई कविताएँ
नहीं लगता मुझे
तुम एक मुक्कमल आदमी हो!
क्योंकि
सभ्यता की तुम्हारी कमीज़
राजधानी की खूंटियों पर
अब भी टंगी हुई है
तुम्हारे विवेक का चश्मा
दिल्ली के चौक पर मुझे दिखा
एक तस्वीर भी दिखाई पड़ी
तुम्हारी राजपथ पर
जिसमें पूरी तरह से
नहीं पहचान में आ रहे हो
कि तुम हमारे ही
गांव के श्यामू हो
कई रंग पुते हुए थे
कपोलों पर तुम्हारे
असली रंग कौन सा है तुम्हारा
नहीं समझ में आया मुझे
हां समझते- समझते
जोर देते- देते दिमाग़ पर
इतना मैंने ज़रूर समझा
कि मौसम के मुताबिक
तुम स्वयं रंग जाते हो
एक नवीन सभ्यता की
नवीन चादर में
तुम स्वयं लिपट जाते हो
वैसे भी तुम्हारे
रंग- रूप पर मुझे नहीं जाना है
अपना माथा मुझे व्यर्थ नहीं खपाना है
क्योंकि
मुझे डर है
शहर में नितांत अकेला हूं
सैकड़ों बोझ है
अभी कंधे पर जिम्मेदारियों का
मुझे कुछ दिन और जीना है
सामाजिक समरसता के लिए
मुझे नफ़रत का
विष भी पीना है
नहीं!
मुझे अब नहीं जानना है कि
मेरे गांव का सीधा-सादा श्यामू
शहर की इस
चौंधियाती रोशनी में कब
श्यामू से श्यामलाल हो गया
सम्पूर्णानन्द मिश्र
शिवपुर वाराणसी
7458994874
2 . बहुरूपिया समाज
अपशकुन
मानी जाती हैं
स्त्रियां
अगर वैधव्य
का काला धब्बा
उनके माथे पर हो
चूड़ियां तक
तोड़वा दी जाती हैं
दूर बैठायी जाती हैं
धार्मिक और शुभ
क्रिया कर्मों के अवसर पर
अपमान और जलालत
की यह गठरी
अपनी पीठ पर चुपचाप लादकर
एक लंबी यात्रा
आज तक करती चली आ रही हैं
कोई विश्राम नहीं
समाज
प्रत्यक्ष मूक गवाह है
बोल नहीं सकता
अदालत के कठघरे मे
इन बेवाओं के पक्ष में
कुछ कह नहीं सकता
क्योंकि
उनके माथे पर वह
वह लाल सिन्दूर का
शाश्वत शुभ चिन्हक
नहीं होता है
जो पंचपरमेश्वर को
अपनी अम्लान आभा
की गवाही दे
विधवापन की कलंकित
सफेद चादर को उतार कर
दुनियां को यह बताये
की कंटकित पथ पर
चल कर जीवन धवलित
है होता म्लान नहीं
काजल जब तक आँख में
लगा हो शोभा है देता
लेकिन वही जब कपोलों
पर लग जाये तो
कलंक का स्वरुप ले
लेता है
एक सधवा बहुरूपिया
का लबादा ओढ़ ले
तो दुनियां से वाह वाही
बटोरती है
किन्तु जब एक अभागन
विधवा अपने पथ से विचलित हो जाये
तो जगत की कुदृष्टि का
विद्रूप आखेट बन कर
रह जाती है
वाह रे समाज
असली बहुरूपिया तो
तूँ है ।
सम्पूर्णानन्द मिश्र
शिवपुर,वाराणसी