पिता का स्वर / सम्पूर्णानंद मिश्र
पिता का स्वर / सम्पूर्णानंद मिश्र
आज सुना
मैंने स्वर पिता का
बिल्कुल भोर में
कह रहे थे बेटा
घर की याद आती है
वैसे अच्छा है
यहां अनाथाश्रम में भी
वहां 40/45 के मकान में
मेरा विस्तार था
यहां 15/20 के कमरे में
सिमट गई है मेरी ज़िंदगी
कोई असुविधा नहीं है
बस नाचने लगते हो
तुम लोग आंखों में
पोते को गोद में खिलाने का मन चल जाता है
कह दी हो कभी कड़वी बात
तो दिल पर मत लेना
कहा होगा फायदे के लिए ही
मेरा आशीर्वाद
निरंतर तुम्हारे साथ है
तुम्हारी मां देखना चाहती है
तुम्हें एकबार बस
दिनभर रोती है
रात में खांसती है
अवस्था का प्रभाव है
आंखें उसकी धंस गई है
न खाती है न पीती है
तुम्हें याद करते- करते ही सोती है
आज जब पूरा विश्व पिता- दिवस मना रहा है
तो एक बात कहना चाहता हूं
मौत आ जाय जब हम लोगों की
तो ज़रूर
तुम एक एहसान कर देना बेटा
मेरी लाश को कांधा दे देना
मेरे जीवन को पार लगा देना
मत कहना
कि अभी समय नहीं है
दो दिन बाद आ जायेंगे
सारा क्रिया- कर्म कराएंगे
क्योंकि,
नहीं चाहता हूं मैं
कोई यह बक दे
कि ये बूढ़े
लावारिश हैं लावारिश हैं
की इस ध्वनि का बोझ
नहीं ढो पाएगी
मेरी यह निश्छल आत्मा
मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है
सदा सुखी रहो
प्रसन्न रहो
दीर्घायु हो!
पिता दिवस पर सभी पिताओं को मेरा नमन!