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जीवन धारा | पुष्पा श्रीवास्तव शैली

जीवन धारा

निश्छल नदिया जैसी बहती रहती जीवन धारा,
सबमें स्वयं समाहित होकर भर लाती उजियारा।

कभी राह में कंकड़ पत्थर,
कभी सुकोमल धरती।
कभी जेठ की दोपहरी,
और कभी साॅंझ सुंदर सी।

बचपन के वे खेल खिलौने,
बीते अरुनिम जैसे।
और किशोरा में फिर भाये,
सपने सखि साजन के।

युवा हुए तो बहुत झमेले,
सर पर आकर बैठे।
बीत गया फिर सफ़र इसी में,
उलझन कैसे सुलझे।

जीवन की नदिया उफनाती,
पता पूछती रहती।
सिंधु मिलेगा कैसे हमको,
कोई हमें बता दे।

अंत समय में चली मिलन को,
छोड़ जगत यह सारा।
सफल यहीं पर हो जाती है,
निर्मल जीवन धारा।

पुष्पा श्रीवास्तव शैली
रायबरेली

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