आ जाओ गौरैया | डॉ सम्पूर्णानंद मिश्र
आ जाओ गौरैया | डॉ सम्पूर्णानंद मिश्र
आ जाओ गौरैया
आ जाओ गौरैया रानी
फुदकती हुई मेरे छत पर
चीं चीं चूं चूं का स्वर
मेरे सहन में बिखरा जाओ
तुम कैसी हो ?
कहां हो !
किस लोक में हो
क्या तुम बतलाओगी
अपने जीवन की कथा
मेरे कानों को सुनाओगी!
हां इतना मैं जानता हूं
इस बात को अच्छी तरह मानता हूं
कि तुम जहां भी रहोगी
चैन की नींद सोओगी
अरे! यहां तो तुम तरस गई
दाना और
एक बूंद पानी के लिए
मधुर तान सुनाती थी
दरवज्जे के
जिस गौंखें पर बैठकर
अब सफेद खद्दर के कपड़े पहने रक्तिम आंखों वाला एक भयानक रक्तबीज वहां रहता है
बड़े-बड़े जीव-जंतुओं का
अनवरत रक्त पीता है
हर महीने दिल्ली जाता है
कुछ रक्त वहां पहुंचा जाता है
अच्छा है नन्ही-सी जान तुम मत आना!
क्योंकि
इस मृत्युलोक में
सर्वत्र रक्तबीज हैं
तुम जैसी न जाने कितनी चिड़िया उनके क्रूर पंजों से
निकलने के लिए छटपटा रही हैं
इस लोक से उस लोक जाना चाह रही हैं
अब यहां न कोई गांधी है
और न गांधी की विचारधारा है
जो हिंसा के ख़िलाफ़ हो
और जिसकी नीति बिल्कुल साफ़ हो
जो मुक्त करा सके
नर रूपी इस रक्तबीज से
तुम्हारी जैसी और न जाने कितनी गौरैयों को