होली | तोमर छंद | बाबा कल्पनेश

होली | तोमर छंद | बाबा कल्पनेश

होली

विधा-तोमर छंद

कर होलिका का दाह।
कह कौन करता आह।।
प्रह्लाद जपता राम।
पाता जगत विश्राम।।

तब ही मनाते सर्व।
हर वर्ष होली पर्व।।
रे मूढ़ मन हरि जाप।
हरते वही भव ताप।।

उर से विगत हो काम।
निश्चय पधारें राम।।
जब प्रेम का हो रंग।
जग रंग होता भंग।।

यह व्यसन जिसको लाग।
देता विषय विष त्याग।।
भाता न उसको मान।
जागे हृदय जब ज्ञान।।

जग रेत के पद चाप।
अक्षुण न रहता छाप।।
बस एक चिन्मय राम।
यह जगत उसका धाम।।

जग नित्य हरि का कोष।
उर मध्य हरि को पोष।।
शुभ हो सुखद त्योहार।
इस जीव का आधार।।

पिचकारियाँ तब तान।
कर प्रेम का प्रतिदान।।
दे माथ रोली टीक।
तू त्याग जग की लीक।।

हर मूर्ति में भगवान।
दे प्रेम का पकवान।।
ज्यों विदुर का हो साग।
घर-घर जगे यह फाग।।

मेवा लगे तब त्याज्य।
हरि से नहीं जो भाज्य।।
इस होलिका के आग।
निश्चय जले हैं राग।।

लेकर गुलाबी रंग।
प्रह्लाद करता जंग।।
हिरण्या भी जाता हार।
कर त्याग हरि आधार।।

वह जंग लेता जीत।
हों राम जिसके मीत।
गीता कहे यह ज्ञान।
ले जीव तू यह मान।।

दोहा-

होली के इस आग में,राई नोन उतार।
जीव फेंक दे दोष निज,जल हो जाए क्षार।।

बाबा कल्पनेश
श्री गीता कुटीर-12,गंगा लाइन, स्वर्गाश्रम-ऋषिकेश,249304

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