अब आओ न पापा | कल्पना अवस्थी की कविता
अब आओ न पापा
थक गई हूँ चलते चलते, अब गोद में उठाओ न पापा
तरस गई हूँ प्यार के लिए इक बार गले लगाओ न पापा
मन तरस कर रह गया आपके एहसास के लिए,
ये उम्र कितनी लंबी लग रही आपसे मुलाकात के लिए
इस भीड़ से मुझे निकालो, थके कदम है इन्हें संभालो
कभी जैसी सुबह होती थी मेरी, मुझे उसी प्यार से जगाओ न पापा
तरस गई हूँ प्यार के लिए, इक बार गले लगाओ न पापा
आपके न होने का भार ढो रही हूँ
दिन-प्रतिदिन आंसुओं के बीच जी रही हूँ
जहाँ अकेली थी, वहाँ आप आए थे
मेरी पीठ के पीछे मेरा हौसला बढ़ाए थे
पर आपके गले लगकर रोने का भी मन था
तकलीफों के जाल में लिपटा ये तन मन था
हाथ बढ़ाया तो आपका हाथ छूट गया
मेरा सबसे प्यारा खिलौना तो कब का टूट गया
अब आप ही मुझे कुछ पल हंसाओ न पापा
तरस गई हूँ प्यार के लिए एक बार गले लगाओ न पापा
प्यार भरा हाथ सिर पर इक बार रख कर प्यार दो
मुझे फिर यही पापा, यही माँ, यही संसार दो
सारी दुनिया के लिए अब बोझ हूँ मैं
अब आप ही ये बोझ उठाओ न पापा
तरस गई हूँ प्यार के लिए इक बार गले लगाओ न पापा
–कल्पना अवस्थी