धूप | नरेंद्र सिंह बघेल

धूप | नरेंद्र सिंह बघेल

हरे भरे इस गुलशन में क्यूँ ?
मेरे हिस्से आई धूप ।
ये जग रोया कलियाँ रोयीं ,
देखो फिर लहराई धूप ।
किस्से और कहानी सब गुम ,
जगह जगह पर छाई धूप ।
नाना- नानी के किस्सों पर ,
ये कैसे ललचाई धूप ।
बीच भँवर में छोड़ गये वो ,
ये कैसी हरजाई धूप ।
पहले ही था मरुथल जीवन ,
आतप बन कर आई धूप ।।
*** नरेन्द्र ***

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