दोस्त | रत्ना सिंह
मैं कोई लेखिका नहीं हूं । मुझे तो हिन्दी साहित्य का ‘क ख ग’भी नहीं मालुम। पढ़ने के बाद कहानी को समझने में ही महीनों लग जाते तो भला लिखने की बात कहां सोच सकती । लेकिन मन की बात उड़ेलने का बड़ा शौक अब शौक कह सकते हैं या फिर मन हल्का करने के लिए —–। मुझे समझ नहीं आया तो शौक शब्द कह दिया । पिछले कई सालों से ऐसे इंसान को ढूंढ रही हूं कि जो मन कि बात सुने और उस पर प्रतिक्रिया दे या फिर अपने मन में रख लें किसी और —–। अगर उसका मन भरे तो मुझे दुबारा से कह दे । मतलब ये कि जब तक नतीजा न निकले या फिर —–।
कोई नहीं मिला जब घर से बाहर ढूंढने निकली तो दूर सामने एक बुक स्टोर दिखा सोचा चलो यहां भी ढूंढ़ते हैं । बुक स्टोर जा पहुंची खुदा का शुक्र की वहां पर कुछ किताबें दोस्त बन बैठी और मैं उन्हें घर ले आयी । घर पर अलमारी में रख दी ,कई दिनों तक उधर देखा नहीं । एक रात जब मैं सो रही थी, तभी कानों में जोर की आवाज गूंजी । क्या बंद करने के लिए लायी थी ?और ऐसा ही करना था तो , बाकी की दोस्तों के साथ रहने देती । नहीं -नहीं आ रही हूं और उन किताबों के पास गयी उनको सहलाया पुचकारा। उनकी तरफ से भी उतना ही प्यार फिर क्या हम दोनों की दोस्ती जम गयी? मुझे एक दिन बोला कि क्यों न पढ़ने के साथ – हमारे गोरे रंग पर स्याही भी चढ़ा दो । नहीं -नहीं दोस्त ये मुझसे नहीं होगा। दोस्त (किताब)कर सकती हो, सब कर सकती हो। ठीक कोशिश करती हूं , उसी दिन से मेरी कोशिश शुरू । आज आड़ा तिरछा लिखने लगी । शुक्रिया दोस्त (किताब ) ऐसी दोस्त बार -बार मिले मुझे सच ——-।