संस्मरण | कुछ यादें ऐसी भी | रत्ना सिंह
कुछ यादें ऐसी भी – अपने सात साल के नर्सिंग कैरियर में इतना खुश किसी भी मरीज को नहीं देखा जितना खुश रेखा मैम थी। शुरू में जब वे आई सी यू से वार्ड में आयी तो उनकी फाइल मेरे हाथ में दी गई और कहा गया, इस मरीज को तुम्हें देखना है ये कैंसर की मरीज हैं थोड़ा ज्यादा ध्यान देना पड़ेगा । वैसे तो सभी मरीजों का ध्यान देना होता है लेकिन कुछ बीमारियां सामान्य होती है कुछ—–। रेखा मैम की फाइल लेकर जैसे ही कमरे में गयी-हैलो मैम कैसी हैं?आप ! मैं बढ़िया फिट फाट मस्त । सिस्टर आप बताये कैसी हैं? ठीक हूं मैंने कहा। और उनकी दवाईयां देने लगी जितनी देर कमरे में रही रेखा मैम को कभी भी उदास नहीं देखा, चेहरे पर मुस्कान के साथ वे बातें किये जा रही थी । सिस्टर आप कहां से हैं ? कितने दिनों से काम कर रही हैं? इस काम में तो बहुत दुआयें मिलती हैं। आप सब कि वजह से ही हम लोग —-।
अरे रेखा मैम आपकी आंखें नमी से अच्छी नहीं लगती आप तो —-। नहीं सिस्टर दुःखी या रो नहीं रही बस आपके जैसे पोती है जिसे दो साल में ही बेटा अपनी पत्नी के साथ अमेरिका चला गया और फिर कभी नहीं आया। बस इसलिए —–। मैंने उन्हें कहा-रेखा मैं आप मुझे भी अपनी पोती बना सकती हैं। ये बहुत अच्छी बात लेकिन एक बात माननी पड़ेगी आज से मैम नहीं तेरी दादी हूं दादी। आदतन मेरे मुंह से ठीक है रेखा मैम निकला तो उन्होंने गाल पर प्यार से चपेड लगाते हुए मुस्कुराने लगी। अच्छा सुनो पोती साहिबा दादा जी आयेंगे तो उनसे डायरी मांगवाकर कुछ दिखाऊंगी। ठीक है रेखा दादी। आदतन फिर से नाम निकल गया तो मैं माफी -माफी कहने लगी,तभी उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा -परेशान मत हो ठीक हो जाऊं फिर बताती हूं —-। मैं काम पर थी , इसलिए दूसरे मरीज को देखने चली गई फिर तीसरे ऐसे ही दोपहर के बारह बजे फिर रेखा मैम के पास दोपहर की दवाई देना था, कमरे में जैसे ही गयी वहां दादाजी भी मौजूद रेखा दादी ने मेरे बारे में उन्हें भी बताया। दादाजी (रेखा मैम के पति) बेहद खुश। पोती साहिबा ये देखो डायरी सारे दिन यही करती हूं कैसी है ? वास्तव में मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि कैंसर की आखिरी स्टेज पर होने के बावजूद कितना अच्छा लेखन और इतनी सुन्दर चित्रकला भला कैसे? वाह ! रेखा दादी आप तो बहुत ही बहादुर हैं। बस इसके शिवाय और कुछ कहने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं सच में ——।
आज का काम खत्म करके मैं घर आने लगी तो सोचा बाय बोल देती हूं,कमरे में झांका तो देखा कि सो रही हैं इसलिए जगाया नहीं। दूसरे दिन रात को काम पर जाना था। रात के करीब आठ बजे पहुंची तो देखा कि रेखा मैम वाला कमरा खाली पूछने पर पता चला कि वे अब——। ड्यूटी तो करनी ही थी ।काम में मन नहीं लग रहा था। लेकिन क्या —? सुबह हुई मैं रेखा मैम के घर का पता लेकर उनके घर गयी तो देखा कि वो शान्त मुद्रा में लेटी हुई है। दादाजी पास में बैठे हैं और भी बहुत सारे रिश्तेदार भी —-। मैं भी जाकर बैठ गयी । और चेहरे की तरफ देखने लगी बहुत देर तक निहारते रहने के बावजूद भी मैंने उनके चेहरे पर मुस्कराहट के शिवा गम , तकलीफ, दुःख ,पछतावा कुछ भी नहीं देखा । सिर्फ मुस्कुराये जा रही थी सिर्फ मुस्कुराये ——-।