श्री राम कालीन अर्थव्यवस्था का युग | अशोक कुमार गौतम

श्री राम कालीन अर्थव्यवस्था का युग | अशोक कुमार गौतम

अयोध्या के राजा श्री रामचंद्र अखिल विश्व के नायक, लोकरक्षक, लोकरंजक ईश्वर हैं। उनके सम्पूर्ण जीवनशैली को भगवान के रूप में न देखकर, पुरुषोत्तम के रूप में देखने पर तत्कालीन युग की कई विशेषताएँ वर्तमान समय के लिए प्रासंगिक हो जाती हैं। चाहे वह राम के युग की शासन व्यवस्था, कुटुंब व्यवस्था, शिक्षण व्यवस्था,अथवा आर्थिक व्यवस्था क्यों न हो? श्रीराम का युग मूल्यों पर आधारित था। यही जीवन मूल्य उस युग की अर्थ व्यवस्था की कुंजी थी। आज के अर्थ प्रधान युग में जब गरीब जनता की जेबें खाली हो, तब राम युगीन अर्थव्यवस्था पर विचार करना आवश्यक हो जाता है।

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समाज में उपलब्ध न्यायपूर्ण समुचित साधनों के सहारे प्रत्येक मनुष्य को जीवित रहने का अधिकार है। क्या अर्थशास्त्र की अवधारणा वर्तमान समय में सार्थक हो रही है? इस कथ्य पर चिंतन करना सर्वजनों को, सर्वजनों के लिए आवश्यक है। चतुर्दिक सुंदर बाज़ार सजे हैं, जिसका वर्णन करते नहीं बनता, वहाँ सुंदर आकर्षक, कढ़ाई वाली अनेकानेक वस्तुएँ बिना मूल्य ही मिलती हैं। जहाँ के शासक स्वयं लक्ष्मीपति हों, वहाँ की संपत्ति का वर्णन कैसे किया जाए?

बाज़ार रुचिर न बनइ बरनत बस्तु बिनु गथ पाइए।
जहँ भूप रमानिवास तहँ की संपदा किमि गाइए॥

आज जिस अर्थ-प्रणाली को हम विज्ञान कहते हैं, वह श्री राम के समय शास्त्र था। अर्थ विज्ञान में ‘पहले माँग और बाद में पूर्ति’ का व्यवहारिक दोष है। जबकि राम कालीन अर्थशास्त्र में ठीक उल्टा था, अर्थात ‘पहले पूर्ति, बाद में माँग।’ राम के युग का अर्थशास्त्र सरल और आज के युग का अर्थ विज्ञान कठिन है। वास्तव में अर्थशास्त्र रोटी की ही नहीं, मनुष्य की भावना, वासना और उसके संयम पर विचार करने की चीज है। वर्तमान में बचपन से ही व्यापार संबंधी विचार दिमाग में भर दिया जाता है, मानो हम व्यापार करने के लिए ही पैदा हुए हैं। श्री राम के युग में भारतीयों को इतना पता था कि सबका एक कार्य निर्धारित है और उसके आधार पर आत्मविश्वास का निर्माण हो जाएगा। तत्कालीन अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र के निकट था, जिसमें नैतिकता थी, आचरण था, चिंतन था। आज दोनों अलग अलग हो गए हैं। श्री राम के युग में उद्योग श्रम के लिए नहीं, वरन सेवा और परोपकार के लिए होते थे। घर बैठे काम सीखने का शिक्षण-प्रशिक्षण मुफ्त में मिलता था। धर्म पहले था अर्थ पीछे। जीवनकाल और उद्देश्य भी सीमित हुआ करते थे। इसलिए तुलसीदास ने रामचरित मानस के उत्तरकाण्ड में लिखा है-

अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा।
सब सुंदर सब बिरुज सरीरा।।
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना।
नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना।

एक आदर्श अर्थव्यवस्था हर हाथ को योग्यता के अनुसार काम, उस काम के लिए मुफ्त प्रशिक्षण और माँग के अनुरूप उत्पादन पर आधारित थी। जो राम के शासनकाल में प्रत्यक्ष रुप से दिखाई पड़ती थी। इस संबंध में यह कहना आवश्यक होगा कि राम राज्य में आर्थिक समानता के लिए कितनी बुद्धि चलाई गई है। राम राज्य में सब करोड़पति अथवा अरबपति थे। ऐसा मैं नहीं कहता हूँ, लेकिन इतना जरूर कहना चाहता हूँ कि राम राज्य में सभी जन अपने श्रम की कमाई से संतुष्ट थे और अपने कर्म-धर्म का पालन निष्ठापूर्वक करते थे। परस्पर प्रेम और सामंजस्य होने के कारण आर्थिक उन्नति स्वभाविक है, जिसका मूलाधार तो प्रेम ही था। आत्मिक धर्म और हृदयस्पर्शी प्रेम का वर्णन रामचरित मानस में वर्णित है-

दैहिक दैविक भौतिक तापा।
राम राज नहिं काहुहि ब्यापा।।
सब नर करहिं परस्पर प्रीती।
चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती।।

अंग्रेजी में कहा जाता है Everyone has a right to work. जो कि आज के समय में व्यर्थ है। काम देना और उसका मूल्य चुकाना यह आधुनिक अर्थशास्त्र का समय और विषय है। राम राज्य में तो समाज में श्रम के क्षेत्र में अयोग्य स्पर्धा का स्थान ही नहीं था। जिस धर्म व जाति में बालक का जन्म होता था, उस बच्चे को उसी जाति व धर्म में जन्म सिद्ध काम मिल जाता था। यहाँ कहीं न कहीं प्रतिभा का हनन होता था। अयोध्या के बाजारों में व्यापारी बजाजा आदि एक साथ बैठते थे। बजाजा (कपड़े का व्यापार करने वाले), सर्राफ (रुपए-पैसे, सोना-चाँदी का लेन-देन करने वाले), वणिक (व्यापारी) बैठे हुए ऐसे जान पड़ते हैं, मानो अनेक क्षेत्रों में सब जन कुबेर हो। स्त्री, पुरुष, बच्चे और बूढ़े जो भी हैं, सभी सुखी, सदाचारी और सुंदर हैं। जिसका वर्णन तुलसीदास जी ने किया है-

बैठे बजाज सराफ बनिक अनेक मनहुँ कुबेर ते।
सब सुखी सब सच्चरि सुंदर नारि नर सिसु जरठ जे॥

उत्पादित वस्तुओं का वितरण व विनियोग एक बड़ी समस्या है। राम राज्य में परस्पर अवलंबन होने के कारण नौकरों की संख्या कम थी। सभी लोगों में स्वामिभक्ति थी। इस कारण भेदभाव रहित समाज की स्थापना हो गई थी। ‘मैं कुछ लूँगा तो कुछ दूँगा’ यह तत्व राम राज्य में समाया था। ऐसी अर्थव्यवस्था जहाँ पर होगी, वहाँ की प्रजा सुखी रहेगी। हर तरफ बाजार सजते थे। अयोध्या में बाजारों की इमारतें इतनी सुंदर बनी थी, मानो स्वयं ब्रह्मा ने बनाया हो-

चारू बाजारू विचित्र अंबारी।
मनिमय विधि जनु स्वकर सँवारी।।

दान धर्म और पुण्य तत्कालीन अर्थशास्त्र की व्यवस्था थी। जिसका महत्व वर्तमान अर्थशास्त्री नहीं समझते हैं। अर्थशास्त्र में इसे विनियोग कहते हैं। उस समय संचित धन पर शास्त्र का अंकुश था। रामराज्य कहता है तुम अपने धन के ट्रस्टी हो, इसलिए तुम अपने धन को मनमाना खर्च नहीं कर सकते हो। राम राज्य में धन का उपयोग अच्छे कार्यों के लिए होता था।विशेष बात यह है की रामराज्य में कोई लोभी, दुर्बल, प्रमादी और अहंकारी नहीं था। फसल की पैदावार का छठा भाग भूमि कर के रूप में, उपज का चौथाई भाग प्रजा के हित में खर्च किया जाता था।

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राम व रामायण काल में लगभग 50 प्रकार के उद्योग प्रचलित थे। राम कालीन व्यवस्था यहाँ तक थी कि अनुचित ढंग से कमाने वालों की लड़की से कोई विवाह नहीं कर सकता था। व्यापारी अपने वस्तुओं को बेचने के लिए सुसज्जित बाजारों में एकत्रित होते थे। जिसकी सुंदरता और सुव्यवस्था देखते ही बनती है। कुबेर के समान श्रेष्ठ धनी, व्यापारी सब प्रकार की अनेक वस्तुएँ लेकर अपनी-अपनी दुकानों में बैठे हैं। सुंदर चौराहे और सुहावनी गलियाँ सदा सुगंधमय रहती हैं। जिसका मानो आँखों देखा वर्णन करते हुए तुलसी दास लिखते हैं-

धनिक बनिक बर धनद समाना।
बैठे सकल बस्तु लै नाना।
चौहट सुंदर गलीं सुहाई।
संतत रहहिं सुगंध सिंचाई॥

श्रीराम काल में शुद्ध सोने के सिक्के चलते थे। पेपर करेंसी तो आधुनिक अर्थशास्त्र की देन है। उस समय न मुद्रास्फीति थी, न ही कागज के नोट थे। राम राज्य के सभी लोग सन्यासी नहीं थे, किंतु कर्म करके धन प्राप्त करते थे। सारी कमाई समाज हित के कार्यों में खर्च होती थी। तुलसीदास ने सिर्फ धन कमाने के लिए ही नहीं, अपितु जीवन के हर क्षेत्र में सर्वांगीण विकास के लिए ईमानदारी और कर्म को ही प्रधान मानकर रामचरित मानस में लिखा है कि-

करम प्रधान विश्व रचि राखा।
जो जस करहिं सो तस फल चाखा।।

राम राज्य में अर्थशास्त्र की एक उन्नत अवस्था विद्यमान थी। जो कार्ल मार्क्स के सिद्धांत से कहीं अधिक अच्छी थी। व्यक्तिगत जीवन में आत्मविश्वास, उद्योग केंद्र, विनियोग, मौद्रिक नियंत्रण और रचनात्मक अंकुश श्रीराम के युग की अर्थशास्त्र की प्रमुख विशेषताएँ थी। वर्तमान भौतिकवादी वैज्ञानिक युग में प्लेग, कोरोना जैसी महामारी आ जाने से वैश्विक स्तर पर अर्थव्यवस्था पंगु हो जाती है। जीविका, रोजगार आदि के लिए हर तरफ त्राहि मच जाती है। त्रेतायुग में चिकित्सा पद्धति न के बराबर थी। विषम परिस्थितियों में भी प्राकृतिक आपदा आ जाने से जीविकापार्जन के लिए नौकरी, रोजगार, खेती, मजदूरी, शिक्षा आदि पर संकट छाने लगता था। तब तुलसीदास ने ‘कवितावली’ में नानादि संकटों के समय भी किसानों, व्यापारियों, मजदूरों की पीड़ा का वर्णन करते हुए श्री राम को ही खेवनहार बताया है-

खेती न किसान को, भिखारी को न भीख बलि,
बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी।
जीविका बिहीन लोग सीद्यमान सोच बस,
कहैं एक एकन सों, ‘कहाँ जाई, का करी?’
बेदहूँ पुरान कही, लोकहूँ बिलोकिअत,
साँकरे सबै पै, राम! रावरें कृपा करी।
दारिद-दसानन दबाई दुनी, दीनबंधु!
दुरित-दहन देखि तुलसी हहा करी॥

सरयू-भगवती कुंज
अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर साहित्यकार
वार्ड नंबर 10 शिवाजी नगर
रायबरेली, यू०पी०
मो० 9415951459

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