इन्हीं आंखों ने देखा है | डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र
इन्हीं आंखों ने देखा है | डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र
शिष्टजन
क्या
इन्हीं आंखों ने देखा है ?
सारा मंज़र
अपना छिनता हुआ बचपन
हां भाई देखा है
इन्हीं आंखों ने!
बाजार के गोलगप्पे जहां मेरी उम्र के और बच्चों की जिहृवा की सवारी कर अघा नहीं रहे थे
वहीं
उस वय में खेतों में
कुदाल चलाते हुए अब्बा के कंधे को झुकने से बचाते हुए
मैं
उनका उत्तराधिकारी
अपने को स्व घोषित कर रहा था
जिस उम्र में और
बच्चे अपने भविष्य निर्माण हेतु
मदरसे में जाते थे
उस वय में मैं अपने अम्मी की शिनाख़्त मिटाती हुई साड़ी की सिलाई करते हुए उसकी
एक्सापयरी डेट बढ़ा रहा था
जिस उम्र में और बच्चे हाथी, घोड़े का खेल खेला करते थे
उसी वय में
मैं अब्बा के जनाजे में
मरसिया पढ़ रहा था
जिस उम्र में और बच्चे ईद की सेवइयों का लुत्फ़ उठा रहे थे
उस वय में
मैं
बीमार अम्मी के
इलाज के लिए
अपनी जमीन
गिरवी रख रहा था
जिस उम्र में और बच्चे अपनी दादी मां से लोरियां सुन रहे थे
उसी वय में मैं
अपने सपनों को यमराज
के मुंह से छुड़ा रहा था
बारंबार दमतोड़ते देख रहा था!
शिष्टजन!
क्या इन्हीं आंखों ने
देखा है ?
सारा मंज़र
अपना छिनता हुआ बचपन
हां भाई देखा है
इन्हीं आंखों ने !