पीड़ा / सम्पूर्णानंद मिश्र
पीड़ा
सदियों से
प्रतिस्थापित
पत्थर
धर्मस्थलों में
खोखले लिबास
ओढ़े- ओढ़े
बिल्कुल थक से गए
और अपने साथ हुए
अन्याय के ख़िलाफ़
पूरी प्रतिबद्धता से खड़े हो गए
उनके साथ हुए
शोषण का रक्त
उनकी आंखों से
निरंतर टपक रहा है
दरअसल
उनका विद्रोह
मुनासिब था
खोखले आदर्श के प्रतिमान
की माला पहनाकर
हर किसी ने
उनके देह की सुगंध
अपनी जीभ से चाटनी चाही
आज वे
अपनी मुक्ति के लिए
चीख रहे हैं
पुराने खोखले प्रतीकों
के दरवाज़े तोड़कर
चिड़ियों की तरह
आकाश नापना
और
आंधियों की तरह
आक्सीजन लेना चाह रहे हैं
लेकिन
किसी भी कीमत पर
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च
को जंगल होने से
बचाना चाह रहे हैं!
सम्पूर्णानंद मिश्र
शिवपुर वाराणसी
7458994874