महक रही यह फूल की घाटी / हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश’
महक रही यह फूल की घाटी
महक रही यह फूल की घाटी,
चन्दन-वात लुटाता है,
स्नेहापूरित कण-कण जिसका,
भारत देश कहाता है।टेक।
शस्य-श्यामला सुफला धरती,
खनिजों के भण्डार भरे,
मलय सुहावन सुरभि लुटाती,
कण-कण नव ऋंगार करे।
मोक्ष दायिनी पावन गंगा,
जीवन धन्य कहाता है।
महक रही यह फूल की घाटी,
चन्दन-वात लुटाता है।1।
निज की आहुति दे करके हम,
मॉ का श्रृंगार किया करते,
दुश्मन के घर में घुसकर हम,
मुँहतोड़ जवाब दिया करते।
मातृभूमि के लिए यहॉ पर,
यौवन शीश कटाता है।
महक रही यह फूल की घाटी,
चन्दन-वात लुटाता है।2।
जिसका पॉव पखारे सागर,
नगराज हिमालय झूम रहा ,
क्षिति-जल-अम्बर दसों दिशायें,
उल्लसित तिरंगा चूम रहा।
विश्व-गुरू बन भारत प्यारा,
जग को राह दिखाता है।
महक रही यह फूल की घाटी
चन्दन-वात लुटाता है।3।
राम,कृष्ण,गौतम की धरती,
सत्य-न्याय-पथ हमें दिखाती,
गुरु गोविंद,शिवा,राणा की,
शौर्य कथा मन को छू जाती।
आजाद,भगत,बिस्मिल को पल-छिन,
शीश ‘हरीश’ झुकाता है।
महक रही यह फूल की घाटी,
चन्दन-वात लुटाता है।4।
रचना मौलिक,अप्रकाशित,स्वरचित,सर्वाधिकार सुरक्षित है।
हरिश्चन्द्र त्रिपाठी’हरीश’,
रायबरेली (उप्र)229010
9415955693