सियासत में कयादत बोलती है | आशा शैली
सियासत में कयादत बोलती है | आशा शैली
सियासत में कयादत बोलती है
मगर सिर चढ़के दौलत बोलती है
जवां कुर्बान होते हैं वतन पर
कि सीमाओं पे हिम्मत बोलती है
अदब से पेश आना सीख लो तुम
महफिलों में शराफत बोलती है
वो चंचल है बहुत मासूम भी है
प आँखों में शरारत बोलती है
छुपाये फिर रहा जो मुफ़लिसी को
वहाँ भी तो लियाकत बोलती है
दरो-दीवार की वीरानियों में
मेरे दिल की हकीकत बोलती है
नहीं इज़हार की शैली ज़रूरत
जो दिल में हो मुहब्बत बोलती है
आशा शैली
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दाग़े-लहू मैं किस तरह खंजर से निकालूँ
जो रूह में है कैसे उसे घर से निकालूँ
उसकी नज़र में एक इक ऐमाल है मेरा
किस तरह खुद को उसके बराबर से निकालूँ
जो नेको-बद हैं सब हैं दर्ज उसकी बही में
उसको चलूँ मैं उसके ही दफ्तर से निकालूँ
कुछ याद के दफ़ीने पुराने मकान में
तुम साथ दो तो उनको भी खण्डहर से निकालूँ
इक कश्तिए उम्मीद मुझे गर दिखाई दे
लालो-गुहर मैं दिल के समन्दर से निकालूँ
दानिश्वरों के साथ बैठकर के चार दिन
नायाब नगीने भी मैं हुनर से निकालूँ
वह रूठ न जाए यह डर सता रहा बहुत
शायद ही कभी दिल को मैं इस डर से निकालूँ
आशा शैली