कामकाजी महिलाओं पर कविता/ज्योति गुप्ता

कामकाजी महिलाओं पर कविता /ज्योति गुप्ता

कुछ एक सा होगा


पैरों में छाले लिए तपती दोपहरी में मीलों नापना,
और एक मजदूर होना,
सुबह से दिन और दिन से रात के सफर में,
कभी सुकून की शाम ना पाने वाली गृहणी होना,
एक के छालों का वो ज़ख्म,
एक के हृदय का वो मर्म,
कुछ एक सा होगा।

आग जो चूल्हे में धौकानी से फूंकी जाती है,
जिसकी लपटें एक स्वाद भारी थाली में
जाने कितने सपनों का छौंका रोज लगाती है,
आग जिसमें लोहा भी उसने मोम सा पिघलाया,
सड़को पर आज उसका बदन हैं मोम सा पिघलता,
कतरा कतरा वो पानी नहीं खून है बहता,
गृहणी का वो सपना औेर मजदूर का वो पसीना,
कुछ एक सा होगा।

आसमान के उस पूरे चांद की तुलना
अपने माथे पर लगी बिंदिया से कर लेना,
या उसका गोल आकार देख उसे रोटी बता बच्चो की भूख मिटा लेना,
एक की अधूरी ख्वाहिश,
एक की मजबूरी का वो बहाना,
कुछ एक सा होगा।

फुर्सत के पलों में चाहे खुद को संवारना,
हींग की डिबिया सा महक,ड्योढ़ी पार बिखरना,
तो जमाने की सरौते सी जुबान का डर,
किसी के अर्थ से अनर्थ होना भर,
और द्वारे ही रुक गृहणी में रौष का कौंधना,
भूख से बिलखती बच्ची का रोना,
एक तो पेट में रोटी दूजे छाती में दूध का ना उतरना,
मजदूर का छटपटाहट से वो तिलमिला उठना,
कुछ एक सा होगा।

माथे का पल्ला और चमकती बिंदिया,
रसोई से बैठक तक वो छनकती पायलियां,
आज बन बंधन हो गई उसकी सिसकियां,
खुद सूने हाथों से तपा औेर आग मे गला,
सांचे में ढाल तुमको दे दी चूड़ियां,
उन्हीं हाथों में गरीबी कि तुमने बांधी बेड़ियां,
गृहणी का खोया वो श्रृंगार,
मजदूर का खोया वो बेगार,
कुछ एक सा होगा।

इतने पर भी उसका अधीर ना होना,
उम्मीदों की आंच को सुलगने देना,
धीमे धीमे सपने की एक तरकारी,
एक नया तड़का डाल फिर से पकाना,
अकेले उठ ना किसी और का सहारा लेना,
सीख लिया उसने भूख से लड़ना,
सफर सदियों पहले का हो,
या मीलों आज तय करना,
खोने को बस बंधन और बेड़ियों का होना,
पाने को पूरा जहान समक्ष होना,
गृहणी का उस बंधन से मुक्त
स्वाभिमान पा लेना,
मजदूर का अपनी बेड़ियां तोड़
अपना अधिकार पा लेना,
कुछ एक सा होगा।

बेशक अपने हक की आजादी पा लेना,
हमेशा एक सा था और एक सा होगा..।


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ज्योति गुप्ता

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