कटघरे में अदालत के |सम्पूर्णानन्द मिश्र
कटघरे में अदालत के
अपशकुन
मानी जाती हैं
स्त्रियां
अगर वैधव्य
का काला धब्बा
उनके माथे पर हो
चूड़ियां तक
तोड़वा दी जाती हैं
दूर बैठायी जाती हैं
धार्मिक और शुभ
क्रिया कर्मों के अवसर पर
अपमान और जलालत
की यह गठरी
अपनी पीठ पर चुपचाप
लादकर एक लंबी यात्रा
आज तक करती चली आ रही हैं
कहीं विश्राम नहीं !
समाज
प्रत्यक्ष मूक गवाह है
बोल नहीं सकता
अदालत के कठघरे में
इन बेवाओं के पक्ष में
कुछ कह नहीं सकता
क्योंकि
उनके माथे पर वह
वह लाल सिन्दूर का
शाश्वत शुभ चिन्हक
नहीं होता है
जो पंचपरमेश्वर को
अपनी अम्लान आभा
की गवाही दे
विधवापन की कलंकित
सफेद चादर को उतार कर
दुनियां को यह बताए
कि कांटों के पथ पर
चल कर जीवन धवलित
है होता म्लान नहीं
काजल जब तक आँख में
लगा हो शोभा है देता
लेकिन वही जब कपोलों
पर लग जाये तो
कलंक का स्वरूप
ले लेता है
एक सधवा बहुरूपिया का
लबादा ओढ़ ले
तो दुनियां से वाह वाही
लूटती है
किन्तु जब एक अभागन
विधवा अपने पथ से विचलित हो जाये
तो जगत की कुदृष्टि का
विद्रूप आखेट बन कर
रह जाती है
वाह रे समाज
असली बहुरूपिया तो
तूँ है!
सम्पूर्णानन्द मिश्र
शिवपुर,वाराणसी