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ज़िन्दगी आसान तो भी नही थी | पुष्पा श्रीवास्तव ‘शैली’

ज़िन्दगी आसान तो भी नही थी।
लिखती रही
फाड़ती रही
बहुत सारे शब्द हवाओं में उड़े।
जरूर बतियाए होंगे मेरे बारे में।

वो चिमनी की काॅंपती लौ भी
कुछ तो सोचती रही होगी,
जब उसको हाथों में पकड़
उसकी मद्धिम रोशनी में
मैं सब्जी का रंग निहारने की कोशिश
किया करती थी।
काॅंपते थे हाथ सब्जी बनाते हुए,
कि कहीं नमक कम और मिर्ची
तेज न हो जाए।
बहुत बार पतली मेड़ों पर गिर जाती थी।

जरूर उनपर उगी दूब ने खेतों से
कहा होगा कि
इस बहुरिया को सॅंभालना होगा।
ठंड की शीत ने भी
जरूर खुद को थोड़ा गरम किया होगा
कि मेरे पाॅंव में ठिठुरन न हो।

और द्वार की वो नीम ने, जो
आज भी मेरे लिए आह्लादित है,
जरूर ठंडी बयारों को मुझ तक भेजा
होगा।

गर्मी से बेहाल थी मैं
तभी तो
चांद ने भी शीतल चांदनी से
दुलराया था मुझको।

बादलों से जरूर बतियाया होगा,
कहा होगा कि जाओ
रिमझिम फुहारों का
कारवां लेकर मेरे आंगन में।
जलती है आज भी
अपनी मंद लौ के साथ
वो प्यारी चिमनी
मेरे हृदय के दीवट पर।

उन पतली पगडंडी को भी
भेंटती हूॅं जी भर,
जिन्होंने मुझे लघु रूप की
परिपक्वता के अर्थ का ज्ञान दिया।

वो द्वारे की नीम जो आज भी
मुझे नई बहुरिया का मान
देती हुई मेरी संगिनी बन गई।
और चाॅंद!
जो मेरी कविता को
अपनी गोद में उछाल-उछाल कर
नजरें उतारता है मेरी!

मेरे इस नायक को
जीवनपर्यंत सलाम।
वो बदरी जो मेरे गीत को
आज भी सॅंवारती हुई
मुझे मेरे बचपन की
दुनिया में उतार कर झंझावतों
के कपाट को बंद कर देती है।

अरे! और वो माटी का चूल्हा,
बारिश की भीगी लकड़ियों
के सामंजस्य के साथ जलने
की जिद का अभिनव ज्ञान का
संदेश मेरे व्यक्तित्व को
आज तक सिखाता रहा।।
नमन।

पुष्पा श्रीवास्तव शैली

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