मॉ की याद बहुत आती है | हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश

मॉ की याद बहुत आती है,
आकर मुझे रुला जाती है।

तब तो इतना ज्ञान नहीं था,
शर्म नहीं अभिमान नहीं था।
सूखे – गीले जैसे भी थे,
मैं कोई भगवान नहीं था।
बड़े चाव से गोदी लेती ,
अपना तो पहचान नहीं था।
नजरों से मुसकान नशीली,
तनहाई में दे जाती है।
मॉ की याद बहुत आती है,
आकर मुझे रुला जाती है।1।

सुख-दुख की हर बात पुरानी,
आज वही बन गई कहानी।
तपता दुपहर पवन जेठ का,
दूब खेत की बड़ी सयानी।
कोना,मेड़ दूब सब छॉटूॅ-,
लिए खड़ी मॉ मीठा-पानी।
यौवन का सुख जहॉ अमीरी,
मॉ तो स्नेह निभा पाती है।
मॉ की याद बहुत आती है,
आकर मुझे रुला जाती है।2।

जीते जी तो भूल न पाऊॅ,
मर कर गोद उसी की जाऊॅ।
रूखा-सूखा जो भी देगी,
बड़ी ललक से मैं खा जाऊॅ।
जितना चाहे मुझे ताड़ ले,
माथे पर पग-धूलि लगाऊॅ।
कष्ट असीमित साथ गुजारूॅ,
सुख देकर दुख पाती है।
मॉ की याद बहुत आती है,
आकर मुझे रुला जाती है।3।

कौन हुआ ऋण-मुक्त बताओ,
मन उदास,पागल समझाओ।
अब किसके ऑचल में मैं रोऊॅ-,
मॉ की वह ममता दिखलाओ।
हाथ पकड़ चलना सिखलाया,
दूध-भात वह मुझे खिलाओ।
मॉ के चरणों में अवनत हूॅ,
कृपा-दृष्टि मॉ कर जाती है।
मॉ की याद बहुत आती है,
आकर मुझे रुला जाती है।4।

रचना मौलिक,अप्रकाशित,स्वरचित,सर्वाधिकार सुरक्षित है।

हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश;
रायबरेली (2290001)

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