पतझड़ | लिख दो नई किताब,मेरे हिसाब से | हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश’

पतझड़

जीवन-उपवन में पतझड़ ने,
उलट फेर कर डाला,
लुटे-लुटाये डाल-पात पर,
मधुरस किसने डाला।टेक।

बहॅकी-बहॅकी पवन नवेली,
सुरभि लुटाती बनीं पहेली।
मनहर तरुवर नग्न निरखते,
कैसे मचले पवन बघेली।
सुकुमार तड़पती कलिका को,
क्यों बदरंग कर डाला।
जीवन-उपवन में पतझड़ ने,
उलट-फेर कर डाला।1।

,विधि का यही विधान रहा,
साथ पतन-उत्थान रहा।
दुख-सुख साथ नहीं रहते,
झूठा सब अरमान रहा।
साथ प्रकृति के चलकर देखो,
सुन्दर खेल निराला।
जीवन-उपवन में पतझड़ ने,
उलट-फेर कर डाला।2।

पतझड़ से संघर्ष करें क्या,
मन में हर्ष-विमर्ष करें क्या?
साथ समय के चलना होगा,
रुक कर व्यर्थ विमर्श करें क्या?
बह न जाये नाव धार में,
धर धीरज मतवाला।
जीवन-उपवन में पतझड़ ने,
उलट-फेर कर डाला।3। – हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश’,

लिख दो नई किताब,मेरे हिसाब से

पढ़कर हुए हैं पास,हम जिस किताब से,
उसकी नहीं जरूरत,मेरे हिसाब से।1।

सामने से देखकर,मुझको तो यूॅ लगा,
वे खा गये हैं धोखा,मेरे खिजाब से।2।

अब सॉप आस्तीन के, बन गये सभी,
जलते हैं लोग क्यूॅ, मेरे खिताब से।3।

फतवा नहीं है कोई,उनके लिए मेरा,
आजाद हैं वे रह लें,अपने हिसाब से।4।

ताउम्र हम लड़ते रहें,किस लिए कहो,
मकसद तुम्हें मिला है,किस किताब से।5।

दो दिन की जिन्दगी,बस प्यार बॉट दो,
लिख दो नई किताब,मेरे हिसाब से।6। – हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश’,

पल-पल मीत तुम्हारी सुधि में ,खोया रहता हूॅ

अश्रु-कणों से पलक-द्वार नित,
धोया करता हूॅ,
पल-पल मीत तुम्हारी सुधि में,
खोया रहता हूॅ।टेक।

देख मचलती चपल तरंगिणि,
मुदित कूल की बॉहों में,
नटखट धारा की अठखेली,
तेरी सुधि की छॉहों में।
नयन आचमन तेरा करते,
अपलक तुम में खो जाते,
भरी भीड़ में एकाकी मैं,
रोया करता हूॅ।
पल-पल मीत तुम्हारी सुधि में,
खोया रहता हूॅ।1।

क्या जानूॅ मैं सच जीवन का,
कभी समझ ना पाया,
सब सम्बन्धी- सगे हमारे,
सबने ही भरमाया।
मिले जहॉ जिस मोड़ पर हम तुम,
अधर प्रकम्पित हो गए गुमसुम,
उर-उपवन में बीज स्नेह का,
बोया करता हूॅ।
पल-पल मीत तुम्हारी सुधि में,
खोया रहता हूॅ।2।

धूप-छॉव जीवन की सहते,
सबकी सुनते कुछ ना कहते,
पावन पुण्य धरा पर देखा,
मलयज बन कर तुम्हें बिखरते।
स्नेह सुघर मन का आभूषण,
आज बॉटता पवन प्रदूषण,
मैला न हो ऑचल तेरा,
धोया करता हूॅ।
पल-पल मीत तुम्हारी सुधि में,
खोया रहता हूॅ।3। – हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश’,

न्याय की कलम चले

लिखूॅ सत्य की बात,
न्याय की कलम चले,
अखंड रहे प्रिय देश,
न कोई भरम पले।1।

ज्ञानवान बन करें ,
मानव के हित काम,
लिखें सत्य इतिहास फिर,
ना होगें बदनाम।2।

सदा कलम निर्णय करे,
नीति-अनीति बताय,
दुष्टों को दे दण्ड वह,
सज्जन मन हरषाय।3।

कलम सदा लिखती रही,
नीति-नियम की बात,
बुद्धि कलम के साथ हो,
मिलती नित सौगात।4।

पढ़ें,सुनें और फिर लिखें,
सोच-समझ हर तथ्य,
लिखा कलम ने ही कहीं,
क्या होता पथ्य-अपथ्य।5। – हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश’,

लड़कर मिटते जा रहे,बंजर हो गए खेत

प्रभु चरणों का ध्यान कर,
करो सदा सद्काम ,
पूर्ण मनोरथ वे करें,
साथ रहें अविराम ।1।

घने तिमिर को बेंधकर,
बिहॅसे नवल बिहान,
श्रम के कायाकल्प से,
प्रमुदित सकल जहान।2।

अंधियारे में दीप-लौ,
रखना सदा सॅभाल,
पथ-प्रशस्त होता रहे,
संशय नहीं कपाल।3।

परहित जितना कर सको,
कर लो चित्त लगाय,
व्यर्थ गया क्षण बीत यदि,
तो फिर क्यों पछताय ।4।

कल विकास के शिखर पर,
आज नेस्तनाबूद ,
सिर्फ अहम टकरा गये,
जीवन लगा फफूॅद।5।

लड़ कर मिटते जा रहे,
बंजर हो गए खेत,
कब्रगाह बनता शहर,
अब तो मानव चेत।6। – हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश’,

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