अनंग पाल सिंह भदौरिया’अनंग’ के अध्यात्मिक मुक्तक
अनंग पाल सिंह भदौरिया’अनंग’ के अध्यात्मिक मुक्तक
( 1 )
अंतरातमा में अगर , जम जाएं आदर्श ।
देव मार्ग पर आदमी, खुद चल देय सहर्ष ।।
खुद चल देय सहर्ष, न भाते सुख संसारी ।
अंतर्मन संतोष , देय आनंद निकारी ।।
कह’अनंग’करजोरि,अभय हो जीव आतमा।
अति उत्कृष्ट स्वरूप, सजाले अंतरातमा ।।
-अनंग पाल सिंह भदौरिया’अनंग’
( 2 )
आत्म तत्व का गहनतम,तल है कारण देह ।
भाव, आस्था, मान्यता, का संरक्षित गेह ।।
का संरक्षित गेह, यहां दुर्गुण जम जाएं ।
विकृत करें व्यक्तित्व, स्वयं तड़पें, तड़पाएं ।।
कह’अनंग’करजोरि,मन:तल यह महत्व का।
श्रेष्ठ, समुन्नत रूप, यही है आत्म तत्व का ।।
-अनंग पाल सिंह भदौरिया’अनंग’
3 .
मानव का इस भूमि पर, एक छत्र है राज ।
स्वर्ग बना सकता इसे, निज प्रयास से आज ।।
निज प्रयास से आज, खुशी चहुंदिशि फैलादे ।
आत्म भाव विकसाय,जमीं को स्वर्ग बना दे ।।
कह’अनंग’करजोरि, नहीं यह बात असम्भव ।
खुद को ले पहचान,सिर्फ जगका हर मानव ।।
-अनंग पाल सिंह भदौरिया’अनंग
4 .
जीवन के व्यवहार में, लो उतार यह ज्ञान ।
सामाजिक सुख-शांति की,धुरी आत्मविज्ञान।।
धुरी आत्म विज्ञान , समस्या रहे न कोई ।
बदल आस्था जाय, चले सुख- शांति संजोई ।।
कह ‘अनंग’ करजोरि, बढ़े सबमें अपनापन ।
प्रकट होय देवत्व, स्वर्ग बन जाए जीवन ।।
-अनंग पाल सिंह भदौरिया’अनंग’
5 .
जितनी भी कठिनाइयां, विकृतियां संसार ।
सब मानव मस्तिष्क का,उत्पादन साकार ।।
उत्पादन साकार, अशिक्षा, धोखा, झगड़े ।
घृणा, ईर्ष्या, लोभ, मानसिकता के रगड़े ।।
कह’अनंग’करजोरि,मूर्खता हममें कितनी ।
करवातीं आभास, समस्याएं हैं जितनी ।।
-अनंग पाल सिंह भदौरिया’अनंग’
6 .
मानव कई प्रकार के, रहा कष्ट, दुख भोग ।
खुद ही रोगों का जनक, खुद ही भोगे रोग ।।
खुद ही भोगे रोग, समस्या खुद उपजाता ।
बुनता खुद ही जाल,स्वयं को स्वयं फंसाता ।।
कह अनंग करजोरि, समस्याओं का दानव ।
बाहर कहीं न मित्र, केन्द्र खुद ही है मानव ।।
-अनंग पाल सिंह भदौरिया’अनंग’
7 .
चिंतन मानव का विकृत, उलझाए उलझाव ।
इच्छाएं अधिकार कीं, डालें गलत प्रभाव ।।
डालें गलत प्रभाव , लड़ाई, झंझट, झगड़े ।
इससे लेकर जन्म, देंय दुख होकर तगड़े ।।
कह’अनंग’करजोरि,सोच की है सब उलझन।
अपने को पहचान, सुधारो अपना चिंतन ।।
-अनंग पाल सिंह भदौरिया’अनंग’
8.
सहकारी मानव प्रकृति,फिरभी क्यों अपराध ।
आतकों की बाढ़ क्यों, आज बहे निर्बाध ।।
आज बहे निर्बाध , जानना होगा उत्तर ।
बढ़ती खरपतवार, मिट रही फसल निरंतर ।।
कह’अनंग’करजोरि, बात यह नहिं व्यवहारी ।
बाहर है भटकाव, प्रकृति सबकी सहकारी ।।
-अनंग पाल सिंह भदौरिया’अनंग’
9.
अपने कर्मों के लिए, मानव यहां स्वतंत्र ।
कर्म शक्ति से ही चले,अपना तन-मन यंत्र ।।
अपना तन-मन यंत्र, कर सको चाहो जैसा ।
अंतर्मन लिख लेय, कर्म वैसे का वैसा ।।
कह’अनंग’करजोरि,व्यर्थ के देख न सपने ।
मिलते हैं परिणाम, सभी कर्मों के अपने ।।
-अनंग पाल सिंह भदौरिया’अनंग’
10.
कर्मों की गति गहन अति,जान सका नहिं कोय।
कर्म, धर्म तब बनें जब, उनमें शुचिता होय ।।
उनमें शुचिता होय, सहजता कोमलता हो ।
कर्मों का व्यापार, और के हित चलता हो ।।
कह अनंग करजोरि, धुरी यह सब धर्मों की ।
सुख-दुख,चिंता-शांति,सजाए गति कर्मों की ।।
– अनंग पाल सिंह भदौरिया’अनंग’