दर्द छलक उठा / डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र
दर्द छलक उठा
धर्म जब
मज़हबी ऐनक लगा लेता है
कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता है तब उसे
पार्थक्य नहीं कर पाता है
सही और ग़लत का
वह और भी हिंसक हो जाता है
वैसे भी एक पंथ
हमेशा ख़तरनाक होता है
मौत की आहट सुनाई पड़ती है
इसके हर संबंधों की सांसों में
ख़ून उतर आता है ऐसी आंखों में कभी भी कहीं भी
भाई-चारे और मोहब्बत के गुलशन की गुन्द्रा में नफ़रत की माचिस लगा देते हैं यही लोग
विस्थापित ही उस चुभन को महसूसते हैं
कितना कठिन होता है
जब पुरखों के ख़ून को
हथियारों के बलबूते
पानी की तरह बहा दिया जाय
प्रतिवेशियों की नग्न आंखों ने
यह सब कैसे देखा होगा!
अपने आशीष के जल से
जिन हाथों ने बच्चियों की किशोरावस्था की
वाटिका को सींचा था
उनकी मांग के उजाड़खंड पर
क्यों नहीं कांपें उनके हाथ
यह प्रश्न आज भी
अनुत्तरित है
चौराहे पर खड़ा होकर
देश सभी की आंखों में
एक सटीक और सार्थक
उत्तर तलाश रहा है
चौखट पर ही
दम तोड़ देता है
रंडियों का प्रेम
वह बाहर निकलकर
बहुत दिनों तक सांसें
नहीं ले सकतीं लंबी
इतिहास के पन्नें
हमें यह बताते हैं
अतीत की क्रूर गाथा सुनाते हैं
लेकिन क्या
बत्तीस साल से
विस्थापन का दंश झेल रहे तथाकथितों के दिलों पर
जो जख्म हरे रह गए हैं
क्या कोई मरहम
उनको सुखा पाएंगे!
डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र
शिवपुर वाराणसी
7458994874