हमारी दास्तां है | रत्ना भदौरिया

बहुत सालों से बोलने और बताने की कोशिश कर रही हूं लेकिन ना कोई सुनता है और ना ही कहने देता है। दिमाग भी नहीं चला इतने सालों से लेकिन आज दिमाग चला तो सबसे पहले यह बात भी उभर कर आयी’ जब जागो तभी सवेरा ‘। आज कागज और कलम से बात करने का निर्णय लिया। दूसरी तरफ यह भी सोचा कि क्या सच में मैं अपनी सारी बात कर पाऊंगी,यदि नहीं तो कोई बात नहीं लेकिन ट्राई करने में क्या जाता है। आठ बजे खाने का डब्बा लेकर नौकरी पर पहुंचना होता वो तो ठीक उसके पहले का कार्यक्रम जिसके लिए चार बजे उठना पड़ता और फिर छः बजे तक खाने का डब्बा तैयार होता। आठ बजे से लेकर रात के आठ बजे तक अस्पताल में इस मरीज से उस मरीज दौड़ लगाते रहो यदि पहुंचने में जरा भी देरी हुई तो मरीज से लेकर उसके घर वाले,डाक्टर, स्टाफ के सीनियर इतना सुनाते की खाने का डब्बा यूं ही खत्म हो जाता और हां पाचन तंत्र भी बिल्कुल फिटफाट रहता। दिलचस्प बात तो यह है कि हमारी रफ्तार यूं ही रहती वो नहीं पचती। अब पचने का मतलब यह कि हम उसी रफ्तार से काम में लगे रहते। खैर मेरा मतलब यहां ये सब बताना नहीं ये तो आप सब भी जानते और देखते होंगे। मैं तो अपनी स्टाफ कमला की बात कर रही हूं। इन दिनों वो बहुत परेशान है। इसलिए नहीं कि उसकी नर्स की नौकरी अच्छी नहीं है सिर्फ इसलिए कि उसने ग्रामीण वातावरण में ऐसा कभी नहीं देखा कि आपके घर में कोई भूखा बैठा हो और आप चाय ,समोसे , खाना, लस्सी, आइसक्रीम आदि खा रहे हो। मैं तो पिछले कुछ सालों से इन बातों की आदी हो चुकी हूं लेकिन वो अभी नयी नयी आयी और उसको चार दिन के लिए नर्सिंग देखभाल के लिए एक मरीज की कीमोथेरेपी चल रही है उसकी निगरानी हेतु भेज दिया गया है। वो बारह घंटे वही रहती है। अभी सुबह उठकर खाना बनाने की आदत ना होने की वजह से उसने चार दिन रात के खाने पर गुजारे हैं। मैने भी पहले सबसे बहुत कहने की कोशिश की लेकिन नतीजा ——–। आज उसके फोन पर यह बात सुन मैं ———–। अब लिख ही रही हूं तो एक घटना और बार बार दिमाग में हिलोरें मार रही है। बात करीब एक साल पहले की हैं जब मेरे स्टाफ की एक लड़की कोमा के एक मरीज को देख रही थी। अब दुर्भाग्य कहूं या सौभाग्य मैं खुद नहीं समझ पा रही हूं। वो वहां रात दिन रहती थी। कोमा में वेंटिलेटर पर पड़े मरीज की देखभाल आम लोग तो नहीं कर सकते प्रशिक्षित नर्स या डाक्टर ही कर सकता है। लेकिन उसे सिस्टर्स नहीं ये लड़की या फोन पर मेरे घर में काम करने वाली के संबोधन से बुलाया जाता था। खाने में सबके खाने के बाद बचा खाना या दुसरी सुबह रात का खाना परोसा जाता। मैं यहां फिर कहना चाहूंगी ‘उसे ‘जिस काम को गर्म और ताजा खाने वाले लोग नहीं कर सकते जिसको वो कर रही थी। मात्र चंद पैसों में। एक सवाल है -क्या घर के लोगों ने पैसे नहीं लिये यदि लिये तो किया क्यों नहीं? अब कुछ लोग यह भी कहेंगे कि सबका काम अलग अलग होता है तो मैं मानती हूं लेकिन उनके लिए क्या सोचते हैं? कोरोना महामारी तो सबको खूब याद‌ है। जहां पर सिर्फ हम हमी थे तो फिर ऐसा क्यों ——–?आखिर हमारी भी एक दास्तां है जिसे सुना जाना चाहिए और ——–! रत्ना भदौरिया रायबरेली उत्तर प्रदेश

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