हमें भी | लघुकथा | रत्ना सिंह
हमें भी | लघुकथा | रत्ना सिंह
उसके कपड़े बेहद मटमैले और गंदे थे । बस की चलती तेज रफ्तार में हवा का झोंका खिड़की से अंदर आ रहा था। जिससे उसके कपड़ों से आ रही बदबू सबके नाकों में सांस के साथ अंदर प्रवेश कर रही थी। तभी एक सज्जन जो बड़े ठाठ से कोट पैंट पहने बीच की सीट पर बैठे थे। बोल पड़े -इतनी गंदी बदबू किससे आ रही है और जिससे भी आ रही हो वो किनारे जाकर खड़ा हो जाये। कुछ लोग खड़े थे, कुछ बैठे। लेकिन सब जहां के तहां ही रहे।
बस अपनी रफ़्तार से चलती रही। करीब पन्द्रह मिनट के बाद वे गुस्से से खड़े हुए और आवाज को कड़क करते हुए कहा -समझ में नहीं आता यार तुम लोगों की उधर खड़े हो जाओ बदबू से सिर फट रहा है। तभी पर किसी ने नहीं सुना तो वे खुद ही नजर दौड़ाने लगे कि किसके कपड़े गंदे और मटमैले हैं।
कई लोगों को किनारे कोने में खड़ा किया। तभी उसने हाथ पकड़ते हुए कहा – ये कोट पैंट वाले साहब जी कहां से आ रहे हैं और इतना ही बदबू की चिंता थी तो कार या गाड़ी बुक करके क्यों नहीं आये । बस में क्यों ?कोट पैंट वाले बाबूजी झिड़कते हुए तू होता कौन है ऐसे सवाल करने वाला ?और हां सुन ये मेरा व्यक्तिगत फैसला कार में जाऊं या बस में। होता कौन हूं तो सुन इंजीनियर की नौकरी हूं थोड़ा बहुत राजनीति से जुड़ा हूं। सर अब मैं बताऊं -नाम संतू मजदूरी करता हूं।आप जो काम करवाते होंगे उसमें मेरे बिना आपका काम अधूरा शायद नौकरी और तनख्वाह भी ——।
अरे यार आज मजदूर दिवस है बहुत बहुत शुभकामनाएं। कोट पैंट वाले साहब जी इन सबसे ज्यादा जरूरी है हम सबको स्वीकारना और उस पसीने को जिसमें आपकी भी नौकरी जुड़ी है साहब। संतू ने सहसा हाथ जोड़ दिये और कोट पैंट वाले बाबूजी खड़े देखते रहे