व्यथित मन | पुष्पा श्रीवास्तव शैली | हिंदी कविता
व्यथित मन | पुष्पा श्रीवास्तव शैली | हिंदी कविता
व्यथित हूं
कुछ सीवन सी टूटती जा रही।
या कुछ सीलन के प्लास्टर
जैसा झड़ता ही जा रहा
कभी भी खतम न होने वाला।
आज तो मां पर भी रंज
तुम तो चली गई,
सोचा भी नहीं ।
तुम थी भी तो
न मानो तुम्हारी बात तो
तुम्हारे अंदर की मां खो
ही जाती थी।
हिटलर*
और पिता दुलारते ही रहे,
क्यों?
क्यों ही जब उनको भी
तुमसे पहले ही जाना था।
कौन भूल पाता है यार,
याद आते हो आप दोनों
बस जब दुःख
झड़ता है सीलन की दीवार
जैसा।
याद आते हो आप जब ये
आंखे तपती हैं बुखार में
या गुस्से में।
याद आती है,बहुत याद
आती है जब मेरी बनाई
तरकारी का स्वाद मेरी
बेटियों के हांथों में उतरता है
लेकिन
और भी बेचैनी के साथ
याद आती है,
जब तुम्हारी सीख पर ही
तुम्हारी मुहर अब नहीं
लगेगी ,यह सोचकर,
मां मां मां।
व्यथित हूं।
पुष्पा श्रीवास्तव शैली