कोहरे कि रातें/प्रदीप त्रिवेदी दीप
कोहरे कि रातें
कोहरे कि रातें ठंडे बदन
काँप रहे गातऔर काँप रहे मन
शीत में ठिठुरती है कांपती जुबानें
आज कटेंगी कैसे रात राम जाने।
बिलख रहे पक्षी गण
बिलखता चमन
कोहरे की रातें ठंडे बदन
काँप रहे गात और काँप रहे मन।
सांस से निकलती है
गर्म गर्म भाप।
शीत लहर ऐसी
देह रही कांप
दिन में भी मुश्किल है
दिनकर के दर्शन।
कोहरे कि रातें ठंडे बदन
काँप रहे गात और काँप रहे मन।
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