कुटुम्ब विनाशिनी | वेदिका श्रीवास्तव
कुटुम्ब विनाशिनी / वेदिका श्रीवास्तव
लाज का झूठा घूँघट ओढ़े सम्मान उछाले नारी का ही ,
कर्तव्य ,त्याग की दे दुहाई चैन ये छीने बेचारी का ,
क्षण -क्षण निन्दा ,पग -पग निन्दा कर्म है कुटुम्ब विनाशिनी का |
तेरे भी हैं ,मेरे भी हैं घर में इस नारी का ये रुप ,
पीर ना समझे नारी होकर जो नारी की ,वो क्या नारी !
सिन्दूर की कीमत जो मांगे,है चोला पहने सौभागिनी का |
पूजन के जो जो तुल्य हैं स्त्री ,संस्कारों पे उसके प्रश्न!
ये कैसा नियम है जग में,कैसा ये जीवन नारी का !
तिनका -तिनका जोडा जिसने,क्यों देखे दृष्य वो बर्बादी का !
सास कभी ,तो कभी देवरानी -जेठानी , बहु कभी ,कभी ननद का रुप ये ले ,
नारी की शत्रु बन कर ,नारी नारी को रौंदे !
हृदय पाषान कर ढूंढो तो ,दूर ना कुटुम्ब विनाशिनी मिले !
सहस्त्रों नारी का जीवन ऐसी नारी ने ले ड़ूबा ,
स्वयं ठगी अपनो से फिर भी ,ठगती घर ये दूजों का ,
नारी है शब्द बहुत ही ऊँचा,मर्यादा ना छीनो इसकी ,
बचकर रहना हमे सदा ही ,ऐसी कुटुम्ब विनाशिनी से |
वेदिका श्रीवास्तव