मां का स्नेह | हिंदी कविता | कल्पना अवस्थी

मां का स्नेह
मां वह कपड़े नहीं मिल रहे जो तुमने कहीं मिला कर दिल रखे थे
उस कुर्ते में आज भी तेरे हाथ है जो तूने प्यार से मेरे लिए सिल रखे थे
हर चीज भूल जाती हूं रखकर
जब कुछ ढूंढती हूं तो बहुत ज्यादा थककर
आप झट से हर चीज ला देती थी
खोए हुए अपनेपन से मुझे मिला देती थी
पैसा बहुत है मां पर आपके हाथों से बना स्वेटर कहां से ले आऊं
ऊन के हर धागे मैं थी भरी ममता आखिर कैसे पाऊं
वह चलती हुई उंगलियां मन में ढेरों आशीष
वह बचपन नहीं था रब की थी बख्शीश हर ऊन के रेशे में मां ने ना जाने कितने दिल रखे थे
मां वह कपड़े नहीं मिल रहे जो तुमने कहीं मिला कर दिल रखे थे
उस कुर्ते में आज भी तेरे हाथ है जो तूने स्नेह से सिल रखे थे
आज जब सबके लिए खाने की थाली लगाती हूं
तब आपकी याद में खो जाती हूं इंतजार करती हूं कि रसोई से कब आवाज आएगी
मां अंदर से मीठी डांट लगा बुलाएगी कि एक ही रोटी खाकर ना उठ जाना दूसरी रोटी बना रही हूं
एक हाथ बेलन पर दूसरा चकले पर बस जल्दी आ रही हूं
अब घंटों निहारती हूं तू रसोई घर में दिखती नहीं
मां एक अनुपम निधि है जो कहीं बिकती

अगर बिकती तो तो सारी खरीद कर मैं ही ले आती
जब भूखी होती तो तेरी आवाज आती टिफिन कम तू धमकियां ज्यादा देती थी
लौटकर रोटी आई तो खैर नहीं ऐसा ही कहती रहती थी
मां टिफिन का वह अचार कहीं ढूंढे ही नहीं मिलता
जिसमें तेरी खट्टी डांट के बूंद मिल रखे थे
उस कुर्ते में आज भी तेरे हाथ हैं जो तूने प्यार से से मेरे लिए रखे थे
बिस्तर की सिलवटें वह बड़े प्यार से दूर करती थी
तकिए की खोल पर सिर रखें वह चादर में नूर भरती थी
थक कर बिस्तर पर जब आई तो पाया मां तुम बैठी हो
कुछ समय आराम भी कर लिया करो बेटा ऐसा ही कहती हो
मैं अपलक निहारती रही कि मां बिन कभी रह पाऊंगी
दिन भर थककर भी जो नहीं थकती क्या मैं ऐसा कुछ सह पाऊंगी
सिर सहलाना तुम्हारा मिठाई से भी मीठा था
उस समय मुझे मां रूप में ईश्वर मेरे सामने दिखा था
आज वह कंबल ढूंढती हूं जो तुम मुझे बचपन में ऒढाती थी
जिसे ओढकर मुझे ना जाने कहां से सुकून की नींद आ जाती थी
वह तकिया भी जाने कहां खो गया जो मां मेरे सिरहाने रख जाती थी
कितनी खूबसूरत थी वह दुनिया जो बिना अटकलों के कट जाती थी
अब जाती हूं मायके तो सब सुना पाती हूं
उस घर के हर कोने में मां को ना देख कर दुख दूना पाती हूं
दरो दीवार से आवाज आती है
यह सब्जी देखो बेटा बताओ बनी कैसी है
जैसी तुम्हें पसंद है ना बिलकुल बनी वैसी है

मां तुम जाने कहां हो मुझे दिखाई क्यों नहीं दी
मेरे सिवा तेरी आवाज किसी को सुनाई क्यों नहीं दी
घर आते हुए ढेरों ढेरों चीजें बांध देती थी
पूछ पूछ कर बहाने से हर बात जान लेती थी
मेरी यह साड़ी अच्छी है तुझ पर ज्यादा अच्छी लगेगी
सुंदर दिखी ना तो तेरी मां की सारी दुनिया ही सुंदर दिखेगी
मां वह साड़ी किसी बाजार में नहीं मिली जिसमें तेरी ममता के फूल खिल रखे थे
उस कुर्ते में आज भी तेरे हाथ है जो तूने प्यार से मेरे लिए रखे थे
मां मेरे लिए एक मीठी रोटी बना देना जब बन ना मां मुझे फिर से अपनी बेटी बना लेना
मां के बिना इस जहां में कोई अपना नहीं होता
जब चली जाती है सब साथ लेकर बचा कोई सपना नहीं होता
मां ने एक बार गुस्से में मुझे बेलन मारा था
बाद उसके खुद ही रोई सौ सौ बार दुलारा था
अब चोट दे कर भी कोई पूछने नहीं आता
तुम भी नहीं संसार मा मुझे बिल्कुल नहीं भाता
गुल्लक से निकालकर मां ने कुछ पैसे दिए थे
मैंने उससे मां के लिए कड़े लिए थे
उन को इसी घर में छोड़ गई मां
कहीं नहीं जाती थी पर हमेशा के लिए अकेला छोड़ गई मां
पर वह प्रेम अपनापन सब साथ ले गई मैं हूं भले पर मां मुझे मेरे दोनों हाथ ले गई

कंगना को लगाकर सीने से रो पड़ी हूं
मैं ऐसे मुकाम पर आकर खड़ी हूं
दुनिया है साथ पर अकेली ही हर घड़ी हूं
वह शिकवे सब मन में ही रह गए जो मैंने कहीं अपने दिल रखे थे
उस कुर्ते में आज भी तेरे हाथ है जो तूने प्यार से मेरे लिए रखे थे

कल्पना अवस्थी दर्पण

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *