नरपुंगव राणा बेनी माधव बख़्श सिंह : वीरता के पर्याय // अशोक कुमार गौतम

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की सत्तावनवीं क्रांति में भारत के असंख्य वीरों ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध लोहा लिया। उनमें राणा बेनी माधव सिंह का नाम प्रमुख है। जिन्होंने देश की आजादी के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में बैसवारा क्षेत्र का अतुल्य योगदान रहा है। अवध के यशस्वी क्रांतिवीर राना बेनी माधव सिंह के शौर्य पराक्रम और बलिदान की गाथा जन-जन में व्याप्त है और युगों-युगों तक इनके जन्म से लेकर प्राण उत्सर्ग तक के किस्से साहित्य और संस्कृति में अंकित रहेंगे। भले ही इस राष्ट्रीय संघर्ष को विदेशियों ने ‘यूनिटी’ कहा, तो कुछ भारतीयों ने इसे ‘गदर’ कहा, लेकिन हम सबके लिए तो यह ‘मुक्ति का युद्ध’ ही कहा जाएगा। यह सर्वविदित है कि राना बेनी माधव सिंह रायबरेली जनपद से 25 किलोमीटर दूर शंकरपुर रियासत के राजा थे। जो बाल्यकाल से ही प्रतिभा संपन्न, तेजस्वी और वीरता से परिपूर्ण थे।

उस समय जब अनेक राजे-महाराजे अंग्रेजों के पिछलग्गू बने हुए थे, अपनी सुख सुविधा के लिए हथियार डाल चुके थे, तो ऐसे समय में अवध के राजा राव राम बक्श सिंह और राणा बेनी माधव सिंह ने ब्रिटिश शासन का मुकाबला अंतिम सांस तक किया और दीर्घकाल तक बैसवारा का नेतृत्व किया।

राणा बेनी माधव सिंह के वीरत्व के विषय में क्षेत्र में अनेक किस्से, कहानियाँ, किंवदंतियाँ प्रसिद्ध और जनमानस को कंठस्थ हैं। कुछ कवियों ने इन्हें बैस अवध केसरी, वंशभूषण कहा है, तो किसी ने इन्हें नर पुंगव, नर केसरी और नर नाहर की उपाधि प्रदान की। लोककवि दुलारे ने तो राणा बेनी माधव सिंह की वीरता पर डेढ़ ताल का फाग ही लिख डाला, जो आज भी होली मिलन में गया जाता है–

अवध मा राणा भयो मरदाना।
पहली लडाई भई बक्सर मा,
सिमरी के मैंदाना।
हुवा से जाय पुरवा मा जीत्यो,
तबैं लाट घबराना।
अवध मा भयो मरदाना।
भाई, बन्धु औं कुटुम्ब कबीला
सबका करौं सलामा।
तुम तो जाय मिल्यो गोरन ते,
हमका हैं भगवाना।
अवध मा राणा भयो मरदाना।
हाथ मे माला, बगल सिरोही
घोड़ा चले मस्ताना।
अवध मे राणा भयो मरदाना।

तमाम जनश्रुतियों, लोक कथाओं, गाथाओं, ग्राम्यगीतों और लोकमंचों पर राणा बेनी माधव सिंह और राव राम बक्श सिंह अमरत्व को प्राप्त कर चुके हैं। शंकरपुर (रायबरेली) जो इनके रियासत का मुख्यालय था। वहाँ पर अवस्थित तत्कालीन किला अब संपूर्ण रूप से नष्ट हो चुका है, लेकिन किले के अंदर राणा बेनी माधव सिंह इंटरमीडिएट कॉलेज परिसर में एवं कॉलेज द्वार के सामने माँ भगवती दुर्गा जी का मंदिर आज भी सुशोभित हो रहा है। जहाँ पर पूजा-अर्चना होती हैं। इस मंदिर की विशेषता यह है कि यहाँ पर देवी-देवता की प्रतिमा स्थापित नहीं है। प्रतिमा के स्थान पर एक चौरी पिण्डी (छोटा सा माटी का टीला) बनी हुई है, जहाँ पर जनसामान्य भक्तगण अक्षत, पुष्प, जल चढ़ाकर आज भी पूजा करके माँ भगवती को प्रणाम करते हुए प्रकारान्तर से राणा के प्रति श्रद्धावनत होते हैं। किला से मंदिर तक गुफा आज भी बनी हुई है, जिसके अंदर से राणा जी पूजा करने आते थे। सनातन धर्म में यह मान्यता है कि प्रतिमा नहीं, वह स्थान पूज्य होता है। इस नाते वहाँ की जनता ने उस स्थान पर चौरी बनाकर देवी रूप में उनकी पूजा-अर्चना शुरू कर दी। ब्रिटिश शासकों और राणा बेनी माधव की फौज में बैसवारा के कई स्थानों पर मुठभेड़ हुई। शंकरपुर के अतिरिक्त डौड़ियाखेड़ा, पुरवा, भीरा, सेमरी आदि के युद्ध इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं। राणा की वीरता को देखकर बेगम हजरत महल ने “दिलेर-ए-जंग और खिलअट” की उपाधि प्रदान की।

राजा राणा बेनी माधव सिंह के विषय में यह भी प्रसिद्ध है कि उन्हें छापामार युद्ध प्रणाली में निपुणता प्राप्त थी। इस युद्ध प्रणाली का दूसरा नाम गोरिल्ला युद्ध प्रणाली है। राणा जी ने इस प्रणाली का भी प्रयोग करके ब्रिटिश सैनिकों की विशाल सेना के छक्के छुड़ा दिए। सेमरी- रायबरेली और पुरवा- उन्नाव की लड़ाई में अंग्रेज सेनापति होप ग्रांड और चैंबर्लेन को भागने पर मजबूर होना पड़ा। तत्पश्चात लॉर्ड क्लाइव को राणा के पास संधि प्रस्ताव भेजना पड़ा। राजा राणा बेनी माधव सिंह ने इस संधि प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए कहा कि मैं आत्मसमर्पण कभी नहीं करूँगा। निडर, साहसी राणा के कठोर जवाब से ब्रिटिश गोर बौखला गए और शंकरपुर के किला पर धावा बोल दिया। चूँकि राणा को आक्रमण का अंदेशा पहले ही हो गया था। राणा वीर पुरुष के साथ-साथ दूरदर्शी भी थे। इस नाते उन्होंने पहले से ही अपनी सेना, संपत्ति और परिवार के साथ दुर्ग छोड़कर बाहर हो गए थे। पुस्तकों में लिखे तमाम तथ्यों के अनुसार जब ब्रिटिश सैनिक किले में दाखिल हुए तो, ऐसी कोई सामग्री नहीं मिली, जो उनके काम की हो। एक कमरे में पर्याप्त मात्रा में खाद्य सामग्री, एक पागल हाथी, एक विक्षिप्त भिखारी ही अंग्रेजों को मिला, जो उनके किसी काम का न था। यह था राणा का बुद्धि चातुर्य, जिसने अंग्रेजी बुद्धि को भी भँवर में डाल दिया।

भारत के सुप्रसिद्ध इतिहासकार सुंदर लाल ने अपनी पुस्तक भारत में अंग्रेजी राज (प्रथम खंड) में लिखा है- “कमांडर इन चीफ कैंपवेल ने भी राणा बेनी माधव के पास एक संदेश भेजा था कि अब आपको विजय की आशा करना व्यर्थ है। यदि आप व्यर्थ रक्तपात नहीं चाहते हो तो, अंग्रेज सरकार की अधीनता स्वीकार कर लीजिए। आपको क्षमा कर दिया जाएगा और आपकी समस्त जमींदारी वापस कर दी जाएगी। इसके उत्तर में राणा बेनी माधव सिंह ने कहा कि मेरे लिए किले की रक्षा करना असंभव है। इसलिए मैं किले को छोड़ रहा हूँ, किंतु मैं अपना शरीर कदापि सुपुर्द न करूँगा, क्योंकि मेरा शरीर मेरा अपना नहीं है, बल्कि मेरी जन्मभूमि मेरे बादशाह की है।”

किला से निकलने के बाद चकमा देते हुए राणा ने गोमती नदी पार करके बाराबंकी के रास्ते होते हुए घाघरा नदी को पार कर लिया। इस दौरान राणा साहब के अंग्रेजों के साथ कई छोटे-बड़े युद्ध हुए। राणा बेनीमाधव सिंह ने भिटौली (उत्तराखंड) के किला को जीत लिया। बहराइच जिला के पास ही राणा साहब की बेगम हजरत महल और नाना साहब भेंट हुई। तत्पश्चात सभी लोग नानपारा, बरोदिया और बंकी के रास्ते राप्ती नदी पार करके नेपाल पहुँच गए। इसके पश्चात पूरे दल का क्या हुआ? कुछ पता नहीं चलता। अनेक लोगों के अनेक मत हैं। जिस पर विश्वास कर पाना कठिन है।
राना बेनी माधव सिंह की चर्चा हो, तो उनके सेनापति वीर वीरा पासी और ‘सब्जा’ अश्व की चर्चा होना स्वभाविक है। सब्जा का संबंध राणा से वैसे ही मानना चाहिए जैसे महाराणा रणजीत सिंह का संबंध उनकी प्रिय घोड़ी ‘लल्ली’ से, महाराणा प्रताप का संबंध ‘चेतक’ से, वीर दुर्गा का ‘बाजिया’ से, उदल का ‘बेंदुला’ से, आल्हा का ‘पपीहा’ से, ब्रह्म का ‘हर नागर’ घोड़ा से था।

राणा बेनी माधव सिंह के साथ सेनापति वीरा पासी का अटूट संबंध है। कहते हैं ‘पासी’ विरादरी बैसवारा की सबसे प्राचीन जाति है, जो बहुत स्वामिभक्त और बहादुर होती है। वीर वीरा पासी का मूल नाम शिवदीन पासी था। उनके वीरत्व को देखकर राणा ने उन्हें अपनी फौज में शामिल कर करके अपना अंगरक्षक बना लिया था। लंबी-चौड़ी कद काठी, बड़ी-बड़ी मूँछें, जिन्हें देखकर अंग्रेज भय खाते थे। वीरा पासी को जिंदा-मुर्दा पकड़ने या सिर्फ पता बताने वाले को 50,000 रुपये का इनाम घोषित किया था। सन 1857 में 50,000 रुपये की कीमत आज कितने रुपये हो सकती है। स्वयं अंदाजा लगा सकता है। कई बार उन्होंने राणा की जान बचाई और वीर राणा के सिपहसालार भी थे।

इसी क्रम में अमर बलिदानी लालचंद्र स्वर्णकार का नाम आता है। जो गाँव मनेहरू (घुरवारा) जनपद रायबरेली के निवासी थे। ये काकोरी वाले सुनार थे। जब राना बेनी माधव सिंह अंग्रेज ब्रिगेडियर इवली के साथ भीरा गोविंदपुर (रायबरेली) के मैदान में लड़ रहे थे, दुर्भाग्य से राणा बेनी माधव सिंह घायल होने के पश्चात यह अपने अश्व ‘सब्जा’ के साथ लालचंद स्वर्णकार के घर पर आराम और मंत्रणा करने के लिए गए थे। ब्रिगेडियर इवली बड़ी चतुराई के साथ नक्की खां को लालच देता हुआ उन्हें मनेहरू में लालचंद के घर तक ले आया। तब इवली के आदेश पर अंग्रेज सिपाहियों ने लालचंद के घर को चारों ओर से घेर लिया। तमाम प्रलोभन के बावजूद लालचंद ने राणा के विषय में कोई गुप्त जानकारी नहीं बताया। इसके पश्चात 28 दिसंबर सन 1858 को लालचंद सरकार को अंग्रेजों द्वारा बरगद के पेड़ पर फाँसी दे दी गई थी।

राणा बेनीमाधव सिंह की स्मृति में जगतपुर में अमर शहीद राणा बेनीमाधव सिंह द्वार बनवाया गया है। उनकी स्मृतियों को चीर स्थाई बनाये रखने के लिए जिला अस्पताल रायबरेली का पूरा नाम शहीद राणा बेनी माधव सिंह जिला चिकित्सालय, रायबरेली रखा गया है।

सत्तावनी क्रांति में अपने वीरता की जो मिसाल, देशभक्ति और कर्तव्यनिष्ठा को जिस प्रकार राणा बेनी माधव सिंह ने प्रस्तुत किया, वह इतिहास के पन्नों में सुनहरे अक्षरों में दर्ज और अमर है। इस स्वाधीनता संग्राम की क्रांति में जिन वीर पुरुषों व वीरांगनाओं ने तन-मन-धन से भाग लिया, वास्तव में हमारे असली हीरो वही हैं। लोकमानस में उनकी छवि अमिट है। राणा बेनी माधव सिंह की वीरता, साहस पराक्रम की कहानी भारतीय होठों पर आज भी गूँज रही है।

अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर, साहित्यकार
श्री महावीर सिंह स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
हरचन्दपुर-रायबरेली
निवास – शिवा जी नगर, दूरभाष नगर
रायबरेली, उ०प्र०
मो० 9415951459

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