पत्र की व्यथा/ सम्पूर्णानंद मिश्र
पत्र की व्यथा/ सम्पूर्णानंद मिश्र
पत्र अपनी व्यथा
सुना रहा था
अतीत के सुखद दिन
की गाथा गा रहा था
लोग दिल की बात पत्र
पर लिख जाते थे
प्यार की बातें कह जाते थे
महीनों पोस्टआफिस
के चक्कर लगाते थे
मायके गई पत्नी की
की याद में पत्र लिखते लिखते-लिखते आंसू
बहा जाते थे
मुझे बहुत जतन से रखते थे
जब विरहाग्नि में तपते थे
तो महबूबा के पत्र पढ़कर
विरह की रातें गुजार जाते थे
जब मुझे लोग अपनाए थे
अपने हृदय से लगाए थे
न शहर में कोई दंगा होता था
न कोई लुच्चा और नंगा होता था
न कोई पत्थरबाज होता था
आज हालात बदल गए हैं
नंगई पर आदमी डट गया है
प्रेम ज़िंदगी की पटरी
से उतर गया है
आज मोबाइल ने
यह अधिकार छीन लिया
तब बच्चा भाषा भी
पत्र लिखते-लिखते
सीख जाता था
आचरण की सभ्यता
का पहाड़ा रट जाता था
मानों
अब वे दिन बीत गए !
संस्कारों की पुस्तक
प्रगतिशीलता की अंध दौड़ में
मनुष्य के हाथों से छूट गई
अब न कोई प्रियतमा
प्रिय पर
इतराती है
और न ही खिड़की
पर बैठकर
डाकिया के ख़त का
इंतजार कर पाती है
न कोई कबूतर संदेशा लाता है
और न ही कोई काग आकर
मुंडेर पर बैठकर किसी
अतिथि के आने की
दस्तक दे जाता है
मानों अतीत के सुखद दिन
अब बीत गए !
विश्व डाक दिवस की सभी को बधाई एवं अनंत शुभकामनाएं!
सम्पूर्णानंद मिश्र
शिवपुर वाराणसी
7458994874