शंखनाद | हत्यारा | हूबनाथ

शंखनाद

पूर्णसत्य तो
युधिष्ठिर भी नहीं चाहते थे
जिन्हें माना जाता था
सत्यनिष्ठ

वे राज़ी थे
सुविधाजनक सत्य पर

सत्य
सुविधाजनक हो
तो आसानी से
बदला जा सकता है
असत्य से

सत्य
छिपाया जा सकता है
शंख बजाकर
घड़ियाल
नगाड़े बजाकर

उसके बाद
कभी ज़िक्र नहीं होता
सत्य का

कथाओं में बची रहती है
स्तुति शंख की

बनी रहती है संभावना
शंखों-नगाड़ों की

जिसके पास होगा
शंख
वह बदलता रहेगा
सत्य को
असत्य से

और एक दिन
मान लिया जाएगा

शंख ही सत्य है
सत्य ही शंख है

-हूबनाथ

हत्यारा

मेरे पास नहीं था
सत्य
मैं कृष्ण नहीं था

उनके भी पास नहीं
जो दावा करते थे
सत्य का

अचानक
भीड़ के एक रेले ने
मुझे
बीच मैदान ला खड़ा किया

एक ने थमाया
मेरे हाथ धनुष
दूजे ने खींची
प्रत्यंचा
तीसरे ने धीरे से कहा
कानों में –
छोड़ो तीर
निशाने पर

काँपते हाथों
छुटा तीर
ठीक निशाने पर लगा

सब एक साथ दौड़े
मैं भी निहत्था
वहाँ पहुँचा
जहाँ मेरे तीर से
लहूलुहान सत्य
छटपटा रहा था

भीड़ ने एक स्वर में
हत्यारा करार दिया मुझे

मैं कृष्ण नहीं
मेरे पास सत्य नहीं था

अब किसी के पास
सत्य नहीं है
सत्य मेरे सामने
मरा पड़ा है

पागल भीड़
मुझे घसीटे ले जा रही है
बेथलेहम की गलियों में

जिन्होंने
धनुष थमाया
प्रत्यंचा खींची
वे सभी मिलकर
सूली पर चढ़ाएँगे मुझे

क्योंकि
मैंने हत्या की है
सत्य की

-हूबनाथ

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