हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश’, का रचना संसार
१.
राष्ट्र वाद के शंखनाद से,
नव वर्ष तुम्हारा स्वागत है।
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राष्ट्र वाद के शंखनाद से,
नव वर्ष तुम्हारा स्वागत हो,
धर्म-कर्म सद्भाव सुसज्जित,
अनुपल जीवन आगत हो।टेक।
कण-कण में उल्लास छलकता,
वन,उपवन हर गॉव महकता,
मॉ की चूनर की मादकता ,
पुलकित अम्बर-नेह मचलता।
रोम-रोम में सुरभि सयानी,
लगता जैसे शरणागत हो।
राष्ट्र वाद के शंखनाद से,
नव वर्ष तुम्हारा स्वागत हो।1।
श्रम,समता,सहकार समन्वित,
जन-जन जीवन की परिभाषा,
विश्व-पूज्य हो देश हमारा,
जड़-जग-जंगम, मिटे निराशा।
क्षिति-जल-अम्बर जिसके सहचर,
नित वन्दनीय प्रिय भारत हो।
राष्ट्र वाद के शंखनाद से,
नव वर्ष तुम्हारा स्वागत हो।2।
स्वार्थ-अहम् के मनहर बादल,
नभ,अन्तरिक्ष में छाये हैं,
दुर्दिन की दुन्दुभी बज रही,
कुटिल अधर मुसकाये हैं।
स्नेह लुटाता सुखद सृजन से ,
मानव पूर्ण महारत हो।
राष्ट्र वाद के शंखनाद से,
नव वर्ष तुम्हारा स्वागत हो।3।
चह-चह चहॅके दुबकी चिड़िया,
पर-उड़ने को आकाश मिले,
निठुर काल का गहन अंधेरा,
छॅट जाये,नवल प्रकाश मिले।
स्वस्थ-निरोग रहे जन-जीवन,
उर-अन्तर द्वेष मिटावत हो।
राष्ट्र वाद के शंखनाद से,
नव वर्ष तुम्हारा स्वागत हो।4।
२.
धन्य सनातन धर्म-संस्कृति।
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नव सम्वत की पावन बेला,
नहीं जेब में एको धेला।1।
जिसने जितना अवसर पाया,
भ्रष्टाचारी खेल वो खेला।2।
गेहूं के संग घुन पिस जाता,
सोच-समझ कर करो झमेला।3।
गेहूं के बोझ धरे सिर ऊपर,
बहॅकी चलतीं चाल चमेला।4।
मिलजुल करो विकास की बातें,
करो नहीं मन,अब तुम मैला।5।
बिन बूझे पानी न पूछो,
नहीं बनाओ कोई चेला ।6।
सबकी हॉ में हॉ का मिलना,
खेल नहीं जो मैंनें खेला।7।
कहॉ ढूंढ़ते रोजगार तुम,
पलें जानवर ,खुले तबेला।8।
लक्ष्मण रेखा को पहचानो,
फिर मत कहना शोर मचे ला।9।
धन्य सनातन धर्म-संस्कृति,
सूने पथ पर आज अकेला।10।
फूले-फले ये धरती महॅके,
भाईचारे का हो रेला।11।
नव विकास में नेह-परस्पर
उर्वर हो हर ढ़ेली-ढ़ेला।12।
३.
बम-बारूदी भाषा।
नहीं समझ में आती मुझको,
बम-बारूदी भाषा,
नेह-छॉव में गॉव बसाकर,
रहने की अभिलाषा ।टेक।
धन्य धरा अम्बर अति पावन,
गंग तरंगित मलय सुहावन,
यश-वैभव सोपान सुसज्जित,
नव अंकुर नव रूप लुभावन।
कालजयी नव गीत मनोहर,
मृदुल अधर-जिज्ञासा।
नही समझ में आती मुझको,
बम-बारूदी भाषा।1।
ॠषि-मुनियों की त्याग-तपस्या,
उत्सर्गित पौरुष के बल पर,
मानवता की शिखर-पताका,
फहर रही नभ-जल-थल पर।
धूल-धूसरित हों ना सपने,
ना फैले गहन निराशा।
नहीं समझ में आती मुझको,
बम-बारूदी भाषा ।2।
उल्टे-सीधे दॉव-पेंच से,
शुभकर पन्थ नहीं मिलता,
अहंकार के मरूस्थल में,
शतदल कभी नहीं खिलता।
रुको शकुनि,अब आज तुम्हारा,
पड़ गया उल्टा पाशा।
नहीं समझ में आती मुझको,
बम-बारूदी भाषा।3।
चलो साथ सबके विकास को,
जन-जन परहित लक्ष्य बनाओ,
झुलस रही प्रतिशोध-आग में,
शस्य-श्यामला धरा सजाओ।
कुत्सित भाव मिटाकर मन के,
गढ़ दो नव परिभाषा ।
नहीं समझ में आती मुझको,
बम-बारूदी भाषा।4।
४.
इनकी मुस्कान इन्हें दे दो।
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पंगु हुई जाती मानवता को ,
हे मानव ! अभयदान दे दो,
कातर,असहाय तड़पता बचपन ,
इनकी मुस्कान इन्हें दे दो ।टेक।
वीभत्स,घिनौना रूप तेरा,
बस अहंकार ने कर डाला,
हरे-भरे जग-उपवन को,
तहस-नहस तूने कर डाला।
रहने दे अब, बहुत हो चुका,
स्वर्णिम बिहान इन्हें दे दो।
कातर,असहाय,तड़पता बचपन,
इनकी मुस्कान इन्हें दे दो।1।
इनका क्या दोष, इन्हें खुलकर,
इस नीलाम्बर में उड़ना था ,
सत्य-न्याय पथ चल कर इनको,
इतिहास-पृष्ठ बन जुड़ना था।
पर काट दिया तुमने जालिम,
इनका सम्मान इन्हें दे दो।
कातर असहाय तड़पता बचपन,
इनकी मुस्कान इन्हें दे दो।2।
व्यर्थ हुआ सब जीवन तेरा,
तू नर-पिशाच कहलायेगा,
सपनों के इन नौनिहाल को,
तू मार कहॉ सुख पायेगा।
नव प्राण फूंक दें कंकालों में,
वह राष्ट्र-गान इन्हें दे दो।
कातर,असहाय,तड़पता बचपन,
इनकी मुस्कान इन्हें दे दो।3।
मेरे मन के गीत बना कर,
सुन्दर स्वप्न सजा ले तू,
दे दे सबकी खुशियॉ सबको,
स्नेहिल तार बजा ले तू।
तज पगडंडी अहंकार की,
सृजन-विधान इन्हें दे दो।
कातर,असहाय तड़पता बचपन,
इनकी मुस्कान इन्हें दे दो।4।
५.
शीर्षक:-होंठों पर रस-गागर धर दो।
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हौले से छू लो तन मेरा,
माटी कंचन हो जाये,
सॉसों के इस महल-दुमहले,
का अभिनन्दन हो जाये।टेक।
रोम-रोम सिहरन भर जाती,
भोर-प्रभाती या सॅझवाती,
किससे कहूॅ व्यथा हृदय की,
नेह नयन में खुद शरमाती।
होंठों पर रस-गागर धर दो,
फिर तो चन्दन हो जाये।
हौले से छू लो तन मेरा,
माटी कंचन हो जाये।1।
धूप दुपहरी में तप सन्ध्या,
कब जाने कैसे कौन सजी,
सुधि की पावन अमराई में,
प्रिय स्नेहिल बंशी मौन बजी।
दृग रहे निरखते आ जाओ तुम
ऑखों में अंजन हो जाये।
हौले से छू लो तन मेरा
माटी कंचन हो जाये ।2।
नहीं किसी के साथ जमाना,
आओ छेड़ें नया तराना,
अपने भाव विचारों से हम,
खूब लुटायें स्नेह खजाना।
मस्त-मुदित हो तेरा यौवन,
बागी कंगन हो जाये।
हौले से छू लो तन मेरा,
माटी कंचन हो जाये।3।
६
सुख शान्ति धरा पर लानी है।
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उठ त्याग अहम चल साथ मेरे,
सुख-शान्ति धरा पर लानी है।
बिखर न जायें रिश्ते-नाते,
यह बात हमें समझानी है।टेक।
दुर्लभ मानव-जीवन पाकर,
क्यों नाहक तू इतराता है,
हरी-भरी यह सुन्दर धरती,
इसको श्मशान बनाता है।
गगन-बेंधते हथियारों से,
अब सबकी जान बचानी है।
उठ त्याग अहम चल साथ मेरे,
सुख-शान्ति धरा पर लानी है।1।
जो फूल खिलाने आये थे,
गोले-बारूद बिछाते हैं,
भूल गईं मर्यादा सारी,
पानी में आग लगाते हैं।
प्रतिशोध-आग में झुलस रहे,
मिलकर यह आग बुझानी है।
उठ त्याग अहम चल साथ मेरे,
सुख-शान्ति धरा पर लानी है।2।
पुण्य-प्रताप भरे जग में,
कातर असहाय हुआ बचपन,
मानवधर्मी शिल्पी सचमुच,
लाचार करें करुणा-क्रन्दन।
विश्व-युद्ध की शिखर भूमिका,
उठ भारत! तुझे निभानी है।
उठ त्याग अहम चल साथ मेरे,
सुख-शान्ति धरा पर लानी है।3।
नि:शब्द शान्त कवि के मन को,
क्यों नहीं युद्ध झकझोर रहा,
दुर्दिन के मेघ मचलते नभ में,
मन पागल भाव विभोर रहा।
नव प्रभात में समरसता की,
फिर लिखनी नयी कहानी है।
उठ त्याग अहम चल साथ मेरे,
सुख- शान्ति धरा पर लानी है।4।
हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश’,
रायबरेली- (उप्र)-229010
9125908549
9415955693