सुखद दिन / डॉ०सम्पूर्णानंद मिश्र
सुखद दिन / डॉ०सम्पूर्णानंद मिश्र
वे दिन कितने सुखद थे
स्वच्छता अभियान पर
न खर्चा न चर्चा
विद्यालय पहुंचने पर
साफ-सफाई करके
जमीन पर
बोरी बिछाते थे
गुरुकुल परंपरा में
पढ़ने बैठ जाते थे
गुरु का आदेश शिरोधार्य था
पूरी तरह से स्वीकार्य था
गणित और संस्कृत के शिक्षकों
की छड़ियां रात में
भी डराती थी
संडे की छुट्टी में भी काम करवाती थी
कहीं त्रिकोणमिति
तो कहीं नदी और
लता के
संस्कृत रूपों ने
रात भर जाड़े के
दिनों में
बहुत जगाया
याद न होने पर
शिक्षकों की छड़ी ने
बहुत रुलाया
आज की तरह न
अभिभावक शिक्षक-सम्मेलन हुआ करता था
और न ही कोई अभिभावक अपने
पाल्यों की पिटाई पर विद्यालय उलाहना देने जाता था
परिपाटी बदल गई
खरोंच आने पर
भी शिक्षक और अभिभावक में
गुरिल्ला युद्ध हो जाता है
ज़रा सी बात पर अभिभावक
क्रुद्ध हो जाता है
चौथा स्तंभ भी तनिक सी बात
पर आकाश को धरती पर
ला देता है
और अपने विभाग से सर्वश्रेष्ठ पत्रकार का नारद- पुरस्कार
पा जाता है
तब बच्चा तपकर
कुंदन हो जाता था
आज का बच्चा
इतनी सुविधाओं में भी
कुंद ही रह जाता है
गुरु जिस बच्चे के ऊपर
अपने आशीर्वाद का इत्र
छिड़क देता था
वह बुद्ध बन जाता था
आज सेण्ट के दरिया में
डुबोने पर भी बुद्धु बनकर
ही निकलता है
यह सब आस्था का ही
प्रभाव था
गुरु पर विश्वास था
तब दोनों के
संबंध में
रसायन घुला था
आज रस और अयन
दोनों अलग-अलग हो गया
अतीत के वे दिन
कितने सुखद थे!
डॉ०सम्पूर्णानंद मिश्र
शिवपुर वाराणसी