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एक शिवाला | प्रतिभा इन्दु | हिंदी कविता

मेरे घर के भीतर आकर
तुमने क्या से क्या कर डाला ,
पहले था मेरा मन , मन सा
अब लगता है एक शिवाला !

सुबह – शाम घंटा , मन्त्रों से
ध्वनि का पहरा रहता है ,
पूजन , अर्चन , शंखनाद से
मौसम गहरा लगता है ,

हर पल जलता ही रहता है
घी का दिया भरा वह प्याला ,
पहले था मेरा मन , मन सा
अब लगता है एक शिवाला !

पत्थर की प्रतिमा सा अविचल ,
कोमल , किसलय सा पवन हो ,
मधुगंधों से लगता ऐसे
जैसे तुम मेरा ही मन हो ,

मन में मगन , भजन करते हैं
अर्पण कर फूलों की माला ,
पहले था मेरा मन , मन सा
अब लगता है एक शिवाला !

जब से तुम आए जीवन में
एक नाम की रटन लगी है ,
हर पल सांझ – सवेरे मन में
तेरी ही बस लगन जगी है ,

सभी द्वार हैं खुले हृदय के
बंद नहीं होता अब ताला ,
पहले था मेरा मन , मन सा
अब लगता है एक शिवाला !

प्रतिभा इन्दु

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