अग्नि बिछौना / बाबा कल्पनेश

अग्नि बिछौना / बाबा कल्पनेश

प्रेम पंथ पर आगे बढ़ना,अपनी है कमजोरी।
अग्नि बिछौने के आसन पर,बैठी गोरी-भोरी।।
नयनों के डोरे से खींचे,आओ मेरे स्वामी।
सुनकर गिरा पाँव कब रुकते,उरतल जब अतिकामी।।

प्रेम पंथ पर कंटक जितने,लगते पुष्प बिछौने।
प्रेम पंथ पर पाँव न धरते,जो जन होते बौने।।
भगत और आजाद सरीखे,प्रेम पंथ के राही।
चलते रहते अपनी धुन में,गुन-धुनकर मनचाही।।

जहाँ प्रेयसी दृष्टि वहीं पर,इधर-उधर क्यों देखें।
गोल-मटोल बालकों जैसी,कभी न खींचें रेखें।।
कोई स्वाद-उपाधि न भाए,भाए वही बिछौना।
देखा चाहे घूंघट वाला,मुखड़ा आए गौना।।

जिसको लगता प्रेम बिछौना,चम-चम है चमकीला।
जगत रंग फिर एक न भाए,हरा-गुलाबी-पीला।।
कर्म कांड फिर जग के जितने,की गरिमा क्या जाने।
लगता सब कुछ शूकर विष्टा,पद आदिक के गाने।।

सोने में भी चमक विखेरे,हर कल्मष को जारे।
वहाँ किसी की कभी न चलती,क्या करते अँधियारे।।
धन्नासेठ जगत के हारे,चले न तानाशाही।
वही प्रिया के गाल चूमता,जो अनंत का राही।।

कुछ पैसों में बेंच रहे जो,उर के भरे खजाने।
उनको कैसे प्रियकर लागे,उस रूपसि के गाने।।
कुर्सी-कुर्सी के चक्कर में,निजपन को जो घाले।
उनको तो केवल प्रिय लगते,मकरी के से जाले।।

निज पड़ोस के पीड़ा का स्वर,कभी न जो सुन पाए।
लखकर प्यासे होठ कभी जो,दौड़ नीर ना लाए।।
कैसे संभव अग्नि बिछौना,सहज-सुलभ हो पाए।
उनके जन्म दिवस के अवसर,यह जग पर्व मनाए।।

जीवन घट भर जाता जिस क्षण,पूर्ण मौन जग जाता।
तुच्छ स्वार्थ के बंधन से जब,टूटे कच्चा नाता।।
सद्गुरु चरणों से जोड़े तब,एकल अग्नि बिछौना।
जगत अंक ले टीका करता,अपना दिव्य डिठौना।।

राम नाम से दूर रहे जो,राम नाम अब बोले।
झुके सदा जो स्वर्ण खनक पर,मुख उनने भी खोले।।
बिन पानी के जीवन जिनका,आँखों में भर पानी।
भीगी-भीगी आज लगी है,दृग जल भीगे बानी।।

चलो चलें जग जाल समेटें,इस क्षण करतल रीता।
क्या लेकर आए थे क्या ले,जाना कहती गीता।
दृग जल से झरती शीतलता,सुखकर आसन देखे।
कल्पनेश उन्मत्त लेखनी,यही सहज उल्लेखे।।

बाबा कल्पनेश
श्री गीता कुटीर-12,गंगा लाइन, स्वर्गाश्रम-ऋषिकेश,पिन-249304

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *