पहली बार दिल्ली आगमन | रत्ना भदौरिया

पहली बार दिल्ली आने का खास कारण था उससे पहले दिल्ली क्या? घर से पच्चास किमी का भी सफल नहीं तय किया था दिल्ली तो साढ़े पांच सौ किलोमीटर था । फिर भी हम तेरह लोगों का जत्था दिल्ली के लिए रवाना हुआ। सबने अपने घर से तरह तरह के पकवान बांध रखे थे। मेरी मां ने भी मेरे पसंदीदा खाने की पोटलियां अलग अलग बना दी थी , कुछ इसलिए कि रास्ते में खायेगी क्या तो कुछ इसलिए कि इतनी जल्दी लौटकर आयेगी नहीं और इसे घर का खाना कहां नसीब होगा,बाहर रहकर बाहर का ही खाना पड़ेगा। बाहर के खाने से मेरे पेट में गड़बड़ हो जाती है यह बात मम्मी खूब अच्छे से जानती थी। पापा स्टेशन छोड़ने नहीं आये क्योंकि न वे मुझे ट्रेन पर बिठा सकते और न ही मैं बैठ पाती।

मुझे याद नहीं कि कभी भी मैं पापा के बिना एक रात भी बिताई हो, खूब याद है कि मम्मी के मामा‌ के यहां चले जाने पर मैं पापा के पास ही रहती थी। मम्मी भी नहीं आयी थीं,भाई -बहन छोटे थे ट्रेन रात आठ बजे की थी फिर वापस कैसे जाते ?सर्दियों का समय था , सर्दियों में तो वैसे भी रात के आठ बजे काफी अंधेरा हो जाता है। इसलिए पापा ने घर के पड़ोस में एक जने को कह दिया था कि वे मुझे स्टेशन तक छोड़ दें। घर से निकलते समय हम कुछ इस तरह से रोये जैसे ससुराल जाते समय एक बेटी और बाप रोते हैं। पड़ोस वाले भइया स्टेशन छोड़कर चले गये। हम तेरह लोगों का जत्था इकट्ठा हुआ और हम प्लेटफार्म पर गाड़ी आने की प्रतीक्षा करने लगे। गाडी समय के अनुसार प्लेटफार्म नंबर तीन पर आती थी तब अब एक पर आने लगी है। हम सामान लेकर हांफते हुए जीने से इस पार से उस पार गये और ट्रेन के डिब्बे में घुस गये। अभी हम अपनी -अपनी सीट पर बैठ भी नहीं पाये थे कि ट्रेन चलने लगी।

ट्रेन चलते ही पैर लड़खड़ाने लगे और सीने में एक हूक सी उठी ऐसा लगा बहुत कुछ क्या ?सबकुछ यहीं छूटा जा रहा है। लेकिन दूसरी तरफ यह भी दिमाग में आया कि अगर सबकुछ यहीं छूट रहा है तो हम इतनी दूर जा क्यों रहे हैं? कुछ तो वहां भी होगा नहीं होगा तो कोशिश करेंगे,बस यही सोचकर चल पड़े। सब अपनी- अपनी सीट पर बैठ गये थे, मम्मी को भी फोन करके बता दिया था ,मम्मी की आंखें अभी भी नम थी पापा चुप चाप लेटे हुए हैं मम्मी ने बताया था मम्मी को समझाते हुए कहा -मम्मी देखो इसलिए पढ़ाई की है और जब तक घर के बाहर नहीं निकलूंगी काम‌ नहीं करूंगी तब तक क्या? फायदा होगा ! मम्मी को बताते वक्त ऐसा लग रहा था कि मानों मैं बहुत बड़ी हो गयी हूं। खिड़की से बाहर झांका तो अंधेरे में कुछ दिखाई नहीं दे रहा था हम सब के चेहरे उदासी और चिंता में डूबे हुए थे,तभी मैंने सोचा अगर हम सब यूं ही उदास परेशान रहेंगे तो काम कैसे कर पायेंगे तभी मैंने कालेज के सामने पेटीज की दुकान चालती आंटी की बात शुरू की ,उन आंटी की बात हममें से मैं, मेरी एक सहेली जानती थी वो आंटी इतनी ज्यादा मोटी थी और उनके दुकान के अंदर जाने का दरवाजा बहुत छोटा और पतला था जब उन्हें दुकान के अंदर मस्क़त के बाद चारों तरफ खुद को पतला करने के अंदाज में घुसते हुए देखकर हम लोग खूब हंसते थे ।

आज सबको हंसाने के लिए मैंने खुद को मोटी होने का नाटक कर वैसे ही चलने और खिसकने की कोशिश की तभी सब हंस पड़े और थोड़ी देर के लिए सबके चेहरे पर उदासी गायब हो गयी। फिर हम लोगो ने अंनतापछरी शुरु किया, अंनतापछरी खेलते-खेलते एक -एक कर सब लुढ़कने लगे और पता तो तब चला जब सुबह दिल्ली आ गया दिल्ली आ गया से लोगों का शोर सुनाई दिया। हम लोग भी आंखें मसलते हुए अपने अपने जूते चप्पल पहनने लगे कुछ पल में पूरी ट्रेन खाली हो गयी । अब स्टेशन से बाहर निकले मैट्रो की दिशा खोजते हुए एक आटो वाले अंकल के पास गये जिन्हें गंतव्य तक पहुंचाने के प्रत्येक जन से तीन सौ रुपए लेने के लिए कहा। मैं आश्चर्यचकित भाव से उन अंकल को देखते हुए क्या अंकल तीन सौ इतने में तो हम लोग साढ़े पांच सौ किलोमीटर दूर आ गये हैं।

आटो वाले न कहा अरे मैडम वो ट्रेन है ट्रेन ये आटो है फिर भी आप कह रही हैं तो कम कर देता हूं चलो दो सौ दे देना। एकदम से सौ रुपए कम करने की बात सुनकर मैं और हैरान हुईं भला कोई इतना ज्यादा कम कैसे कर सकता है कुछ तो गड़बड़ है ?उसे मना कर हम आगे की तरफ बढ़ गये ,कई जगह पूंछने के बाद हमें मैट्रो स्टेशन मिल गया वहां से हम हास्टल पहुंचे, हास्टल में दोपहर का खाना लगभग समाप्त होने की ओर था। भगोना पोंछ -पोंछकर हास्टल मालिक ने सब्जी हम लोगों तक पहुंचा ही दिया था,वही प्रकिया चावल के साथ हुई हम लोगों ने उसी में गुजारा किया। रात भर गाड़ी में बैठकर काफी तक गये थे इसलिए सब सो गये। उठने तक शाम हो चुकी थी अब सबके घर से फोन आने का सिलसिला शुरू हुआ ,बात करने के साथ- साथ रोने का भी सिलसिला।अगले दिन से नौकरी ज्वाइन करना था, इसलिए रात का खाना जल्दी खाकर हम सब लेट तो गये थे लेकिन नींद नहीं आ रही थी किसी को दादी की लोरी तो किसी को भाई- बहन के साथ तकिये से खेलना मुझे सबसे ज्यादा मां का पैर चेक करना और मम्मी पापा की गोदी याद आ रही थी।

मुझे खूब याद है रात को अक्सर मैं पैर साफ करके नहीं सोती जैसे नंगे पैर घूम रही होती वैसे ही बिस्तर में जा लेटती तब मम्मी घर के सारे काम निपटाने के बाद पैर चेक किया करती तब हम पैरों को बिस्तर से रगड़कर साफ करने की जद्दोजहद में लगे रहते। दिल्ली पहुंचकर खूब याद आ रहा था। रात व्यतीत हुई सुबह हम सब नौकरी पर पहुंच गये, नयी जिंदगी और कैरियर की शुरुआत के लिए। सुबह नौकरी पर जाने से पहले हास्टल के चट्टानी परांठे आंसुओं के साथ खाकर जाना ,शाम को रोज आलू की सब्जी खाकर सोने की आदत डालने में हर दिन लगे रहते आखिरकार आदत पड़ भी गयी थी ।घर से दूर रहने की आदत आज भी नहीं पड़ी आज भी घर की याद कभी कभी बीमार कर ही देती है फिर भी कोशिश में लगी हुई हूं।

रत्ना भदौरिया रायबरेली उत्तर प्रदेश

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