पूर्वोत्तर की लक्ष्मीबाई : रानी गाइडिंल्यू (रानी गिडालू)
स्वाधीनता आंदोलन के गदर में भारत की आजादी के लिए हजारों वीर जीवन कुर्बान हो गये। अनगिनत अमर शहीदों का वंश तक समाप्त हो गया। वो वीर सपूत या तो हंसते-हंसते फांसी पर झूल गए, या आजीवन कालापानी का करावास में कैद होकर फिरंगियों का जुल्म-ओ-शितम और भूखे प्यासे स्वर्गलोक को सिधार गए।
पूर्वोत्तर की लक्ष्मीबाई कही जाने वाली रानी गाइडिंल्यू (रानी गिडालू) आदिवासी महिला थी, जिनका जन्म 26 जनवरी सन 1915 को तामेंगलोंग, मणिपुर सूबे में हुआ था। तामेंगलोंग शहर खूबसूरत पहाडियों के बीच बसा हुआ छोटा जिला है। यहाँ पर जंगली जानवर बहुतायत देखने को मिल जाते हैं। नागालैंड, असम और मणिपुर में ‘रोंगमेई’ अनुसूचित जनजाति के लोगों की बहुलता थी। इन्हीं के मध्य रानी गाइडिंल्यू पली बढ़ी थी। अंग्रेज अफसर और उनके सैनिक मिलकर पूर्वोत्तर भारत के आध्यात्मिक गुरुओं, राजनीतिक विचारकों, आर्थिक मददगारों को मारने और फाँसी देने में लगे थे।
तब वीरांगना रानी गाइडिंल्यू असम, मणिपुर व नागालैंड में जनसमुदाय के मध्य छोटी छोटी बैठकें करके फिरंगियों के खिलाफ रणनीति तैयार करने में जुट गयीं।
रानी ने अपने कबीलाई समुदाय के साथियों का आत्मविश्वास प्राप्त करने के उपरांत साथियों संग मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह का बिगुल फूँक दिया।
रानी गाइडिंल्यू की किशोरावस्था आते आते 12 वर्ष की बाली उम्र में ही सन 1927 में सम्पूर्ण भारत में अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने के लिए मुहिम तेज हो चुकी थी, तो पूर्वोत्तर भारत में स्वाधीनता संग्राम की लौ धीमी क्यों पड़ती..। रानी गाइडिंल्यू भी अपने चाचा के लड़के व आदिवासी नेता हैपो जादोनांग व अन्य आदिवासी वीरों के साथ मिलकर ‘हेराका आंदोलन’ में कूद पड़ी। छरहरा फुर्तीला इकहरा बदन, चेहरा पर मुस्कान लिए भूखी प्यासी रहकर भी अंग्रेजों से लड़ती रही। कभी भी रानी के चेहरे में सिकन नहीं आने पायी, क्योंकि साथियों के अंदर हौसला भरने का कार्य भी करती थी।
हेराका आंदोलन का मुख्य उद्देश्य पूर्वोत्तर में नागा धर्म को पुनः स्थापित करते हुए ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेकना था। अंग्रेजों का हर तरफ संगीनों के साथ कड़ा पहरा रहता था। दुर्भाग्यवश आदिवासी नेता जादोनाँग को फिरंगियों ने गिरफ्तार करके 29 अगस्त सन 1931 को सरेआम फाँसी पर लटका दिया। अब स्वाधीनता संग्राम की बागडोर रानी गाइडिंल्यू के हाँथ में थी। आंदोलन की धार अब और तेज हो चुकी थी।
छापामार युद्ध (गोरिल्ला युद्ध) में निपुण रानी गाइडिंल्यू की नागा सेना ने ब्रिटिश असम राइफल्स चौकी पर हमला कर दिया। इस अप्रत्याशित हमला में कई ब्रिटिश सैनिक मारे गये। रण कौशल में महारत हांसिल कर चुकी रानी गाइडिंल्यू हर बार अंग्रेजों से बचकर निकल जाती थी।
रानी गाइडिंल्यू ने तय किया कि विशाल दुर्ग बनवाया जाय, जिसके अंदर कभी भी एक हजार से अधिक नागा साथी सुरक्षित रह सकें। फिरंगियों ने भयभीत होकर पूर्वोत्तर राज्यों में ऐलान किया कि जो व्यक्ति रानी गाइडिंल्यू के ठिकाना का पता बताएगा, उसको दस वर्ष तक की अवधि के लिए कर TAX से छूट दी जायेगी। अंग्रेज सैनिकों ने धोखा से 17 अप्रैल सन 1932 को रानी गाइडिंल्यू को गिरफ्तार कर लिया। ब्रिटिश हक़ुमत के क्रूर न्यायधीश ने दो चार पेशी में ही एकतरफा निर्णय देते हुए रानी गाइडिंल्यू को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाया। फिर भी रानी ने जिंदगी की भीख नहीं मांगी।
रानी गिडालू सन 1932 से सन 1947 में स्वाधीनता प्राप्ति तक कई बार जेल गईं, किन्तु अपने मूल उद्देश्य से कभी भी न विमुख हुई, न पीछे हटी। जब भारत स्वतंत्र हुआ उसके बाद ही रानी जेल से बाहर आयी, तब स्वतंत्र भारत देश के निवासियों ने रानी का फूल मालाओं से जोरदार स्वागत किया।
पं. जवाहर लाल नेहरू ने गाइडिंल्यू को “रानी” की उपाधि से विभूषित किया। अंत में 17 फरवरी सन 1993 को लॉन्गकाओ, मणिपुर में स्वर्गलोक सीधार कर भी हमेशा हमेशा के लिए अमर हो गयी।
अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर, साहित्यकार,
रायबरेली यूपी
मो० 9415951459